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________________ एकत्वादेव तदजघन्योत्कृष्टं, बहुष्वेव जघन्योत्कृष्टभावसद्भावादिति । (वृ. प. ८९८) ९. एवं सिणायस्स वि । (श. २५।३४७) सर्व चारित्र मोहनी नुं क्षय थयुं ते उपशम वा क्षय नै अविचित्रपणं करी सर्व निर्गथ नै शुद्धि मां एकविधपणां थकी एक हिज जाणवू । बहु नै विषे जघन्य उत्कृष्ट हुवे पिण एक नै विषे जघन्य , उत्कृष्ट न हुवै। ९. स्नातक ने पिण इह विधे, इक है संजमस्थान । __ सर्व मोह नां क्षय थकी, संजमस्थान प्रधान ।। निर्ग्रन्थ के संयमस्थान का अल्पबहुत्व *सोही सयाणा शिव मग साधे, शिव मग साधै में चरण आराधै ।।(ध्रुपदं) १०. हे प्रभु ! एह पुलाक न जाण, बकुश पडिसेवणा नां पिछाण । कषायकुशील नां संजमस्थान, निग्रंथ स्नातक नां फुन जान ।। ११. एह छहुँ नां संयमस्थान, आपस में माहोमांहि पिछान । कवण-कवण थी जाव कहाय, विशेष अधिक हवै जिनराय ! १२. जिन कहै थोड़ो सर्व थकीज, निग्रंथ स्नातक नों इकहीज । जघन्य अनैं उत्कृष्ट न तेह, संयमस्थान विशुद्धि इक लेह ।। १०. एते सि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणा-कसाय कुसील-नियंठ-सिणायाणं ११. संजमाणाणं कयरे कयरेहितो जाव (सं. पा.) विसे साहिया वा? १२. गोयमा ! सब्बत्थोवे नियंठस्स सिणायस्स य एगे अजहण्णमणुक्कोसए संजमट्ठाणे। 'अजहन्ने' त्यादि, एतच्चैवं शुद्ध रेकविधत्वात् (वृ. प.८९८) १३. पुलागस्स ण संजमट्टाणा असंखेज्जगुणा । पुल कादीनां तूक्तक्रमेणासंख्येयगुणानि तानि क्षयोपशमवैचित्र्यादिति । (व. प. ८९८) १४. बउसस्स संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा । पडिसेवणा कुसीलस्स संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा। १५. कसायकुसीलस्स संज मट्ठाणा असंखेज्जगुणा । (श. २५३४८) १३. तेहथी पुलाक नां संजमस्थान, अधिक असंखगुणा सूविधान । क्षय उपशम ने विचित्रपणेह, आगल पिण ए न्याय कहेह ।। १४. तेहथी बकुश नां संयमस्थान, असंखगुणा आख्या जगभान । तेह थकी पडिसेवणा केरा, असंख्यातगुणा कह्या घणेरा ।। १५. तेहथी कषायकुशील तणां फुन, चारित्रस्थानक भाख्या श्री जिन । पवर असंखगुणा अधिकाय, द्वार चबदमों ए सुखदाय ।। वा-तिहां निकर्ष कहितां सन्निकर्ष पुलाकादिक नों परस्पर संयोजन संबंध, तेहना प्रस्ताव ते अवसर थकी कहै छैनिग्रन्थ में निकर्ष चारित्र के पर्यव १६. हे भगवंत ! पुलाक नां आख्या, केतला चारित्रपज्जवा भाख्या ? जिन कहै चारित्त-पज्जवा अनंत, इम यावत स्नातक नां त। __वा० तत्र निकर्ष:- संनिकर्षः, पुलाकादीनां परस्परेण संयोजनं, तस्य च प्रस्तावनार्थमाह - (वृ. प. ८९८) १६. पुलागस्स ण भंते ! केवतिया चरित्तपज्जवा पण्णता? गोयमा ! अगंता चरित्तपज्जवा पण्णत्ता। एवं जाव सिणायस्स। (श. २५.३४८) वा० 'चरित्तपज्जव' त्ति चारित्रस्य - सर्वविरतिरूपपरिणामस्य पर्यवाभेदाश्चारित्रपर्यवास्ते च बुद्धिकृता अविभागपलिच्छेदा विषयकृता वा। (व. प. ९००) वा. चारित्र सर्वविरति रूप परिणाम नां पर्यव कहितां भेद ते चारित्रपर्यव, तेह बुद्धिकृत अविभाग पलिच्छेद अथवा विषय कृत जाणवा इम यावत स्नातक लगै क हबूं। पुलाक का पुलाक के साथ सन्निकर्ष । १७. हे भगवंत ! पुलाक ने जेह, सजातीया स्थानक में एह । चरित्त-पज्जव स्यूं हीण के तुल्य, अथवा कहियै अधिक अमूल्य ? वा. पुलाक हे भगवन ! पुलाक नै सट्ठाण कहिता आपणा सजातीय स्थानक पर्याय ना आश्रय ते स्वस्थान पुलाकादिक नै पुलाकादिकहीज तेहनों सन्निकर्ष *लय : सोही सयाणा अवसर साधे १७. पुलाए णं भते ! पुलागस्स सट्ठाणसण्णि गासेणं चरित्तपज्जवेहि कि हीणे ? तुल्ले ? अब्भहिए ? वा० ---'सट्ठाणसन्निगासेणं' ति स्वं--आत्मीयं सजातीयं स्थानं -पर्यवाणामाश्रयः स्वस्थानं--- १२८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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