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________________ अध्यवसाय नां । चिहुं गति आउसो ॥ भव शेषायू रहे। समय में बंध किम ? आपू के जेहनों पर भव आयु बंध नहीं ॥ स्युं नरकायू बंधे तास । तिरि मनु सुर आयु बंध होय ? नारक नों ए प्रश्न सुजोय ॥ १२०. जिन कहै नरकायु न बंधंत, तिर्यंच आयु नों बंध हुंत । मनुष्यायु नों पिण बंध होय, सुर नो आयु बंधे न कोय ।। १२१. अनंतर परंपर उपनां नांय, तेह नारक ने स्यू बंध थाव ? जिन कहै चिहुं गति आयु न बंधाय, विग्रहगतिया छे इण न्याय ॥ ११२. *प्रभु! परंपर उपनो जास, ११६. तेह अवस्था मांहि, स्थान अभावे ताहि, न सोरठा ११७. सुर नारक षट मास, आयू बंध विमास, तो प्रथम ११५. तिरि मनुष्य रे पेख, निज धुर बे भागे देख, १२२. एवं जाव वैमानिक संच, नवरं मनुष्य पंचेंद्री तिर्यंच । चिहुं गति नो आयु बंध थाय, शेष पूर्वली पर कहिवाय ॥ तेहवा बंधे १२३. प्रभु ! नारक अनंतर-निर्गत सोय, अथवा परंपर- निर्गत होय । अनंतर परंपर-निर्गत नांय ? जिन कहै ए तीनूंइ थाय ॥ १२८. जेह नारकी हुंत, विग्रहगति वर्त्तत, निज १२४. किण अर्थे प्रभु ! इम आख्यात ? श्री जिन भाखै सुण अवदात । जे नरक नें निकल्यां समय थयो एक, तेह अनंतर निर्गत पेख ॥ १२६. जेह अनंतर भाव, सोरठा १२५. समय आदि कर जान बिच व्यवधान पड़यो नथी । वे अंतर-रहित पिछान, नरक थकी जे नीकल्या ॥ १२६. विहिज समय संपेख, अन्य स्थानके ऊपनां । देख, तेह अनंतर निर्गता || समय ए १२७. *नीकल्यां समय यया वे आदि, तेह परंपर-निर्गत वादि । विग्रहगति में वर्ती ज्यांही अनंतर परंपर-निर्गत नांही । प्रथम Jain Education International उत्पत्ति क्षेत्र न पाव, ते *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी सोरठा न नरक थकी जो नीकया। उत्पत्ति क्षेत्र ऊपनां ॥ तथा परंपर भाव कर । निश्चै नय निर्गत नथी ॥ ११६. तस्यामवस्थायां तथाविधाव्यवसायस्थानाभावेन सर्वजीवानामायुषो बन्धाभावात् । ( वृ० प० ६३३ ) ११७. परम्परोपपन्नकास्तु स्वायुषः षण्मासे शेषे ( वृ० प० ६३३) ११८. स्वायुषस्त्रिभागादी च शेषे यन्धसद्भावात् ( वृ० प० ६३३) ११९ . परंपरोववन्नगा णं भंते! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति ? १२०. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । ( श० १४ । ७ ) १२१. अनंतर परंपर- अणुववन्नगाणं भंते! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति - पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति । १२२. एवं जाव वेमाणिया, नवरं पंचिदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोववन्नगा चत्तारि वि आउयाई पकरेंति । सेसं तं चैव । (श० १४१८) १२३. नेरइया णं भंते ! किं अणंतरनिग्गया ? परंपरनिग्गया ? अनंतर परंपर- अनिग्गया ? गोयमा ! नेरइया अणंतरनिग्गया वि, परंपरनिग्गया वि अनंतर परंपरअनिग्गया वि । (८० १४०९) १२४. से केणट्ठेणं जाव अनंतर परंपरअनिग्गया वि ? गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया अणंतरनिग्गया । - १२५, १२६. अनन्तरं समयादिना निर्व्यवधानं निर्गतं येषां तेऽनन्तरनिर्गतास्ते च येषां नरकादुद्वृत्तानां स्थानान्तरं प्राप्तानां प्रथमः समयो वर्तते । (बृ० प०६२२) १२७. जे नेरइया अपसमनिया ते पं नेरइया परंपरनिया के पं नेरया विग्गगतिसमावन्नगा ते णं नैरइया अनंतर परंपरअ निग्गया । १२. अनन्तरपरम्परानिर्गतास्तु ये नरकादुदुमाः सन्तो विगत वर्तन्ते न तावदुत्पादक्षेत्रमासादयन्ति । For Private & Personal Use Only (२० ५० ६३३) १२९. तेषामनन्तरभावेन परम्परभावेन पोत्पादप्राप्तत्वेन निश्चयेनानिर्गतत्वादिति । (१० ५० ६२३) श० १४, उ० १, ठा० २९१ २३३ www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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