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________________ १२. तियंचयोनिया वलि तियंचणी, ए पिण परिग्रह मांह्यो । आसण ते तो ँ बेसण तणो, सेज्या शयन कहायो ॥ १३. भंड माटी नां भाजन ने कला, कांसी-भाजन मत्तो । उपकरण कुछ कड़ाहा लोहनां वृत्तिकार इम कहतो ॥ १४. सचित्त अचित्त में मिथ द्रव्ये करी परिग्रहवंत विचारो | तिण अर्थ आरंभ- सहित असुर का इम यावत् वणियकुमारो ।। १५. एकेंद्री जिम नरक तणी परे, अयत आधी इंद्री प्रभु! आरंभ सहित परिग्रहसहित १८. जिणविध बेइंद्री में आखियो, इम जाव तिर्यंच पंचेंद्री नीं पूछा कियां, जाव कर्म कहीजे । वदोज ? १६. तिणहिज रोते पाठ भणीजिये, नारक जैम जाव शरीर परिग्रहवंत छै, तन नीं मूर्छा १७. बाहिर भंड मत्त उपकरण ते उपकरण सरीखा कहायो । तनु रक्षा अर्थे बेंद्री करै घर ते परिग्रह मांह्यो । कहावे । भावै ॥ चउरिद्री उदंतो । परिग्रहवतो ॥ कहिवायो । ११. टंक कहोजे देवा गिरि भणी, कूट शिखर शेल कहीजं मुंड पर्वत भणी, ए पिण परिग्रह मांह्यो । Jain Education International २०. शिखरवंत गिरि ने शिखरी कह्यो, कांयक नम्या गिरि देशो | पाठ पभारा तणो ए अर्थ छे, परिग्रह मांहि कहेसो । अंगसुत्ताणि भाग २ में २१. जल थल बिल नें गुफा कही वलि, गिर को पर्वत शिखर थकी पाणी भर, तेहने १. यह जोड़ जिस पाठ के आधार पर है उसके आगे पाठ का कुछ अंग और है— चित्ताचितमाएं दब्बा परिहियाई भवंति' । जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में यह पाठ नहीं था । अंगसुत्ताणि के पाठान्तर में भी यह सूचना दी गई है कि एक अन्य आदर्श में यह पाठ नहीं मिलता है। घर लेणा । उकर केणां ॥ १२. तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ परिग्गहिया भवंति, आसण-सयण १३. भंड-मसोयगरणा परिग्गहिया अवंति । इह भाण्डानि मृन्मयभाजनानि मात्राणि - कोपभाजनानि उपकरणानि लोहीकच्छुकादीनि (० प० २३८) १४. सवितातिमीसयाई दबाई परिहियाई भवंति से गोमा एवं वद-असुरकुमारा सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा । ( ० ५ / १०५) 1 एवं जाव थणियकुमारा । १५. एगिदिया जहा नेरइया । (२०५/१०६) एकेन्द्रियाणां परिग्रहोऽयस्पास्यानादवसेयः । ( वृ० प० २३८) बेदिया णं भते कि सारंभा सपरिमहा ? १६. दिया गं पुढविकार्य समारंभति जाव तसकार्य समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया भवंति । १७. बाहिरा भंड- मत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति । ( श० ५ / १८७ ) - उपकारसाम्यद्रयाणां शरीररक्षार्थ कादीन्यवसेयानि । १८. एवं जाव चउरिदिया । For Private & Personal Use Only ( वृ० प० २३८) (८०२ / १००) किं सारंभा पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! सपरिग्गहा ? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? तं चैव जाव कम्मा परिग्गहिया भवंति, १६. टंका कूडा सेला 'टंकति छिटका 'कुत्ति कुटानि शिखराणि ...' ति मुद्रपर्वतः । - ( वृ० प० २३८ ) २०. सिहरी पन्भारा परिगहिया भति 'सिहर' लि शिखरिणः शिखरवतो गिरयः 'पब्भार' त्ति ईषदवनता गिरिदेशाः । (५० १० २३०) २१. जल-थल - बिल-गुह-लेणा परिग्गहिया भवंति । ''त्ति पर्वतगृहा 'उज्झर' त्ति अवकरः पर्वतादुदकस्याघ्र पतनं । (बु० प० २३८) ० ५ उ० ७ डाल - ६१ ७६ www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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