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________________ सौरठा ४१. सुर नारक समदृष्ट, अवधिज्ञान तेहनें अवश्य । तिरि मनु सन्नी इष्ट, समदृष्टि कोइक विषे ।। ४२. *मति श्र त ज्ञानी परस्परे तुल्ला, अवधि ज्ञान थी एह। विसेसाहिया अधिक विशेष ते, सह समदष्टी लेह ॥ ४३. विभंग अनाणी असंखगुणा कह्या, सुर नारक सुविचार । अवधिज्ञानी छै तेह थकी घणां, विभंग असंखगुणा धार॥ ४४. केवलज्ञानी अनंतगणा अख्या, सिद्ध भगवंत रै न्याय । उभय अनाणी तुल्य अनंतगुणा, वनस्पति में पाय ।। ४५. आभिनिबोधिक नां पजव किता ? अनंत कहै जिनराय । पंच ज्ञान नैं तीन अज्ञान नां, इमज अनंत कहाय॥ ४२. आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी य दो वि तुल्ला विसे साहिया। ४३. विभंगनाणी असंखेज्जगुणा आभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्यो विभंगज्ञानिनोऽसंख्येयगुणाः कथम् ? उच्यते, यतः सम्यग्दृष्टिभ्यः सुरनारकेभ्यो मिथ्यादृष्टयस्तेऽसंख्येयगुणा उक्तास्तेन विभङ्गज्ञानिन आभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्योऽसंख्येयगुणाः । (वृ० प० ३६२) ४४. केवलनाणी अणंतगुणा, मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य दो वि तुल्ला अणंतगुणा। (श० ८।२०७) केवलज्ञानिनस्तु विभङ्गज्ञानिभ्योऽनन्तगुणाः, सिद्धानामेकेन्द्रियवर्जसर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणत्वात्, मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चान्योन्यं तुल्यांः केवलज्ञानिभ्यस्त्वनन्तगुणाः, वनस्पतिष्वपि तेषां भावात्, तेषां च सिद्ध भ्योऽप्यनन्तगुणत्वादिति। (वृ० प० ३६२) ४५. केवतिया णं भंते ! आभिणिबोहियनाणपज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता आभिणिबोहियनाणपज्जवा पण्णत्ता। (श० ८।२०८) केवतिया णं भंते ! सुयनाणपज्जवा पण्णत्ता ? एवं चेव । (श० ८।२०६) एवं जाव केवलनाणस्स । एवं मइअण्णाणस्स सुयअण्णाणस्स। (श० ८।२१०) केवतिया णं भंते ! विभंगनाणपज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता विभंगनाणपज्जवा पण्णत्ता। (श० ८।२११) ४७. आभिनिबोधिकज्ञानस्य पर्यवाः-विशेषधर्मा आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाः, ते च द्विविधाः स्वपरपर्यायभेदात् । (वृ० प० ३६२) ४८. तत्र येऽवग्रहादयो मतिविशेषाः क्षयोपशमवैचित्र्यात्ते स्वपर्यायास्ते चानंतगुणाः, कथम् ? (वृ० प० ३६२) सोरठा ४६. वृत्ति विषे छै ताय, पज्जव तणोज न्याय जे । बहु विस्तारज आय, कहियै तिण अनसार थी। ४७. आभिबोनधिक ज्ञान नां, पर्यव विशेष धर्म । स्व पर पज्जव भेद थी, द्विविध इम तसु मर्म ।। ४८. मति-विशेष अवग्रह-प्रमुख, क्षयोपशम थी त । तास विचित्रपणां थकी, स्व पर्याय अनन्त ॥ *लय : पूजजी पधारो हो नगरी १. जोड़ की प्रस्तुत गाथा बहुत संक्षिप्त है । भगवती में किसी संक्षिप्त पाठ की सूचना नहीं है। इसलिए इस पद्य के सामने भगवती का पूरा पाठ रखा गया है। ३७४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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