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________________ सोरठा ३५. जिम रूपादिक ज्ञान, समर्थ पिण मन्त्रीपण । इच्छा विण पहिचान, वेदन प्रति वेदे अर्थ । ३६. अकाम अर्थज एह, इच्छा विण जे जीवड़ा । निकरण कारण तेह, अनाभोग भी इम वृत्तौ ॥ ३७. अन्य आचार्य ताय, आखै छै इण रीत सूं । अकाम अर्थ कहाय, अनिच्छा पूर्वक जिके ॥ ३८. निकरण अर्थ कहाय क्रिया इष्ट फल शून्य जे । अकाम-निकरण ताय, केवल वेद वेदना ॥ ३६. * जिन कहै हंता तेम, बलि गोयम इम पूछता । समर्थ पिण प्रभु ! केम अकाम-निकरण वेदता ? 1 सोरठा ४०. सन्नीपणे करि जेह समर्थ पिण उपाय विण ते देव ने ४१. समर्थ पण इण न्याय, अणइच्छाई ताय, ४२. *जिन की समर्थ जेह रूप अंधारे दीवा विना । देखण समर्थ न तेह, पेखण मन छै जेहनां ॥ [ जिन कहै गोयम ! एह, अकाम-निकरण वेदना ] ॥ आख्या तेहन | समरव नहीं । आख्या ते समरथ नहीं । अकाम-निकरण वेदना ? ४३. आगल रूप छै जास, तो पिण चक्षु व्यापरयां बिना । देखी न सकै तास, अध्यवसाय देखण तणां ॥ ४४. पूठे रूप से जास, तो पाछे देखण समर्थ न तास, * लय: जो हो धनो ने सालभद्र दोय २७० भगवती जोड़ Jain Education International दृष्टि फेरघां बिना । जोवण मन छै जेहनां ॥ ३५. प्रभुरपि सञ्ज्ञित्वेन यथावद्रूपादिज्ञाने समर्थोऽपि । ( वृ० प० ३१२ ) ३६. 'अकामनिकरणं' अनिच्छात्ययमनाभोगात् ( वृ० प० ३१२) ३७. अन्ये त्वाहु: - अकामेन - अनिच्छया । (३० १०३१२) ३८. 'निकरणं' क्रियाया— इष्टार्थप्राप्तिलक्षणाया अभावो यत्र वेदने तत्तथा तद्यथा भवतीत्येवं वेदनां वेदयन्ति । ( पृ० प० ३१२) ३९. हंता अस्थि । ( श० ७ १५१ ) कण्णं भंते! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति ? ४० यः प्राणी सञ्ज्ञित्वेनोपायसद्भावेन च हेयादीनां हानादी समर्थोऽपि 'नो पहु' त्ति न समर्थः । ( वृ० प० ३१२ ) ४२. गोयमा ! जे गं तो पभू विणा पदीवेणं अंधकारसि स्वाई पात्तिए, एस णं गोयमा ! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति ।" (श० ७ १५२) ४३. जे णं नो पभू पुरओ रुवाई अणिज्झाइत्ता णं पासितए, 'मन' व्यापार्य ( वृ० प० ३१२) ४४. जेणं नो पभू मग्गओ रूवाई अणवयक्खित्ता णं पासित्तए, 'अनवेक्ष्य' पश्चाद्भागमनवलोक्येति For Private & Personal Use Only (०१० ३१२) १. यह पाठ सैंतालीसवीं गाथा के सामने दिए गए पाठ के बाद आता है और फिर सूत्र पूरा होता है। किन्तु जोड़ में बयालीसवीं गाथा के बाद नया ध्रुपद दिया गया है । उसमें इस पाठ का अनुवाद है। इसलिए १५२ वें सूत्र के अन्तिम अंश को यहां उद्धृत किया गया है । आगे ४७ वीं गाथा तक यही सूत्र चलेगा । www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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