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________________ १६. शेष उगणीस दंडक विष, तीजै समय पिछाण । आहारक निश्चै हुदै, न्याय हिया में आण ।। २०. जीव प्रभ! किण समय में, सर्व थको अल्प आहार ? जिन कहै ऊपजवा तणों, प्रथम समय सुविचार ।। २१. चरम समय वलि भव तणों, अल्प आहार लै जीव । यावत वैमानिक लगै, दंडक सर्व कहीव ।। वा०-इहां गोतम पूछ्यो-किण समय सर्व अल्प आहार ? सर्व अल्प ते सर्वथा थोड़ो, जेह थी अन्य थोड़ो आहार नहीं, ते सर्वाल्पाहार, तेहिज सर्वाल्पाहारक । भगवान कहै-प्रथम समयोत्पन्न नैं । ते प्रथम समय नै विषे आहार ग्रहण करिया नों हेतु शरीर नां अल्पपणां थकी सर्व अल्प आहारपणो हुवै तथा भव नै चरम समये हुवं ते आउखा नै छेहला समय नै विषे जाणवू । तिवारै प्रदेश में संहृतपणे करी एतले प्रदेश नैं संकोचवै करी अल्प शरीर नां अवयव नै विषे रहिवा नां भाव थकी सर्वथी अल्प आहारपणो हुई। १६. सेसा ततिए समए। (श०७१) शेषेषु तृतीयसमये नियम दाहा रक इति । (६० प० २८८) २०. जीवे णं भते ! कं समयं सवप्पाहारए भवति ? गोयमा ! पढमसमयोववन्नए वा, २१. चरिमसमयभवत्थे वा, एत्थ णं जीवे सब्बप्पाहारए भवति । दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियाणं । (श० ७।२) वा०—कस्मिन् समये सर्वाल्प:--सर्वथा स्तोको न यस्मादन्यः स्तोकतरोऽस्ति स आहारो यस्य स सर्वाल्पाहारः स एव सर्वाल्पाहारकः, 'पढमसमयोववन्नए' त्ति प्रथमसमय उत्पन्नस्य प्रथमो वा समयो यत्र तत् प्रथमसमयं तदुत्पन्नं-उत्पत्तिर्यस्य स तथा, उत्पत्तेः प्रथमसमय इत्यर्थः, तदाहारग्रहणहेतो: शरीरस्याल्पत्वात्सर्वाल्पाहारता भवतीति, 'चरमसमयभवत्थे व' त्ति चरमसमये भवस्य-जीवितस्य तिष्ठति यः स तथा, आयुषश्चरमसमय इत्यर्थः तदानी प्रदेशानां संहृतत्वेनाल्पेषुशरीरावयवेषु स्थितत्वात्सर्वाल्पाहारतेति । (वृ० प० २८८) २२. पूर्वे जीव कह्या तिके, विशेष थी कहिवाह । लोक संठाण थकी हुवै, लोकपरूपण आह॥ २३. *हे भगवन! ए लोक छ, किण संठाण पिछाण ? जिन भाखै सुण गोयमा! सुप्रतिष्ठक संठाण ।। वा०-सुप्रतिष्ठक ते शरयंत्रक, ते वली इहां ऊपरि स्थापित कलसादिक ग्रहिवू । २४. ऊंधा सरावला ऊपरै, थाप्यो कलश विशेष । ए आकारे लोक छ, हिव एहिज अर्थ कहेस ।। २५. हेठे विस्तीरण कह्यो, जाव' ऊपर पहिछान । ऊर्ध्व मृदंग आकार ने, आख्यो ए संस्थान ।। २२. अनाहारकत्वं च जीवानां विशेषतो लोकसंस्थानवशाद् भवतीति लोकप्ररूपणसूत्रम् (वृ० प० २८८) २३. कि संठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पण्णत्तेबा०-सुप्रतिष्ठकं शरयन्त्रकं तच्चेह उपरिस्थापित कलशादिकं ग्राह्य, (वृ० प० २८८) २४. तथाविधेनैव लोकसादृश्योपपत्तेरिति, एतस्यैव भावनार्थमाह (वृ० प० २८८) २५. हेट्ठा विच्छिण्णे, * लय : किण किण नारी सिर घड़ो रे १. इस ढाल की पचीसवीं गाथा में जाव शब्द कहकर संक्षिप्त पाठ की सूचना दी है, पर छब्बीसवीं गाथा में जाव शब्द से गृहीत होने वाला पाठ आ गया है। इसलिए इन गाथाओं के सामने अंगसुत्ताणि भाग २ का पूरा पाठ उद्धृत किया गया है। २०६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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