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________________ ॥ १४४. वर संजम तप करि यावत विचरै विशेष | ए पंचम शतक नां, अष्टमुद्देशा नों देश ॥ १४५ ए दाल बाणूंमी, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय । 'जय जय' सुख-संपति वर वृद्धि हरण सवाय || । 1 ढाल : ६३ दूहा कह्या, ते १. पूर्व पुद्गल द्रव्य जीव ग्रहै ग्रहे विह कारणें, २. हे भयंत इह विष कही, ! प्रभु बंदी ने जाय इम, प्रश्न *चिन प्रभु वीरजी, धिन पिन ज्यारा शीष जी गोयम गणईश जी ते पुद्गल ने ताय । जीव विचार विचार कहाय ।। भगवंत गोतम सार । करै धर प्यार || जी । गुणहीर नमू निशिदीसजी ।। (पदं) ३. जीव बहु प्रभु ! वर्ष राशि थी के राशि थी जीव घटाय दे । के जेतला छै तेतलाज रहे छे ? ए अवट्टिया कहिवाय बे ॥ ४. जिन कहै जीव वधै न राशि थी, राशि थकी न घटाय । जैतला तलाज रहे है, इण में सिद्ध संसारी विहं आय ॥ ५. हे प्रभु! नेरइया वर्ष राशि थी ? राशि थी नेरइया घटाय । जेवला तेतलाज रहे छं? ए अवलिया छं ताय ? ६. जिन कहै नेरइया वर्ष राशि थी, ओछा पिण राशि थी होय । अवट्टिया पिग रहे नेरइया, इम जाव वैमानिक जोय ॥ ७. सिद्धां रो प्रश्न कियां जिन भाख्यो, सिद्ध वधे न पटाय । विरह पड़े जब रहे अपट्टिया जितराईज छे पाय || Jain Education International ८. हे प्रभु! बहु वचने ए जीवा रहे अवट्टिया किता काल ? जिन कहे अवट्टिया सर्वकाल में छं जितरा रहे न्हाल ॥ ६. नेरइया केतलो काल वधै प्रभु ! जघन्य समय इक माग । उत्कृष्टो ए आवलिका नौं असंख्यातमो भाग || माग । १०. काल एतलो घटै नेरइया, जघन्य समय इक उत्कृष्टो ए आवलिका नों, असंख्यातमो भाग ॥ *लय : घिन प्रभु राम जी " १४४. खामेत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । ( श० ५,२०७ ) १. अनन्तरं पुसा निरूपितास्ते च जीवोपग्राहिण इति जीवांश्चिन्तयन्नाह ( वृ० प० २४४ ) २. भंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं व्यासी ३. जीवा णं भंते! किं वड्ढति ? हायंति ? अवट्ठिया ? ४. गोयमा ! जीवा नो वड्ढति, नो हायंति, अवट्टिया । ( ० ५।२०८ ) ५. किस ? हाति अद्विया? ६. गोयमा ! नेरइया वड्ढति वि, हायंति वि, अवट्ठिया वि । (२० २२०१ ) जहा नेरइया एवं जाव वेमाणिया । (श० ५।२१० ) ७. सिद्धाणं भंते! पुच्छा । गोमा ! सिद्धा वढति, नो हायंति, अवट्टिया वि । ( श० ५।२११ ) ८. जीवा णं भंते! केवलियं काल अद्वया? गोयमा ! सव्वद्धं । ( ० ५।२१२) ६. रयाणं भंते! केवनियं कालं वहति ? गोमा ! जहणेणं एवं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । ( ० ५०२१३) १०. एवं हातिवि। ( ० ५ / २१४) For Private & Personal Use Only श०५, उ०८ ढाल ६२, ६३ ६५ www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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