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________________ अलग अस्तित्व है एवं सभी सुख-दुःख भोगते है। परन्तु जब वे यह कहते है कि प्राणियों द्वारा भोगा जानेवाला सुख-दु:ख न तो स्वकृत है, न पर-कृत, अपितु एकान्त नियतिकृत ही है। यह मान्यता एकान्तिक होने से मिथ्या है। जैनदर्शन के अनुसार सभी सुख-दु:ख नियति द्वारा संचालित नहीं होते परन्तु कुछ ही नियतिकृत होते है। कुछ सुख-दु:ख पुरुष के उद्योग, काल, स्वभाव और कर्म द्वारा किये हुए होते है। सुख-दु:खादि का कारण कहीं पुरुषार्थ है, तो कही अदृष्ट (कर्म) भी है। आत्मा, धर्माधर्म का अमूर्त होना, पुद्गलों का मूर्त होना सब स्वभावकृत है। जैनदर्शन के अनुसार काल, स्वभाव, नियति, कर्म तथा पुरुषार्थ, ये पाँचों कारण प्रत्येक कार्य या सुखादि में परस्पर सापेक्ष सिद्ध होते है। अत: एकान्त रूप से सिर्फ नियति को मानता दोषयुक्त है। ___ वैदिक धर्म की दो महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ है- ईश्वर ही इस जगत् का कर्ताधर्ता और संहर्ता है तथा इस धरती पर जब-जब पाप बढ़ता है, तब-तब ईश्वर अवतार लेता है। सूत्रकृतांग में इस मान्यता का प्ररूपण जगत्कर्तृत्ववाद तथा अवतारवाद के रूप में हुआ है। जब से मानव सोच प्रारम्भ हुई, तभी से जगत् आदि को लेकर उसमें जिज्ञासाएँ उठी कि आखिर इस संसार को किसने बनाया और क्यों बनाया ? लोक का अस्तित्व कब से है? दर्शन के जगत् को इस प्रश्न ने खूब आन्दोलित किया। भिन्न-भिन्न चिन्तकों ने इस सम्बन्ध में अपनी-अपनी मान्यताएँ प्रस्तुत की। कुछ भारतीय दार्शनिकों की मान्यता है कि लोक को ब्रह्मा ने बनाया क्योंकि वह अकेला था और इस अकेलेपन से ऊबकर इस सृष्टि की रचना की। कुछ इस सृष्टि को ईश्वरकृत, कोई स्वयंभूकृत, तो कोई अण्डे से उत्पन्न भी मानते है। जिसका वर्णन शास्त्रकार ने किया है। जैनदर्शन की इस सम्बन्ध में स्पष्ट मान्यता है कि यह संसार अनादिकाल से चला आ रहा प्रवाह है। इसका न आदि है, न अन्त । अगर हम इस जगत की रचना के लिए किसी कर्ता की कल्पना करते है तो फिर वह कर्ता किसके द्वारा निर्मित है ? इस जगत् में हमें कदम-कदम पर वैषम्य देखने को मिलता है। क्या यह वैषम्य भी किसी ईश्वर या प्रकृति निर्मित है ? अगर ईश्वर ही इस जगत् का स्रष्टा है, तो वह अपनी सृष्टि को इतनी क्रूर, हिंसक या अत्याचार - उपसंहार / 405 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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