SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 215 समाधिमरण की अवधारणा जैनों की प्राचीनतम साधनापरक अवधारणासों में से एक है। भगवान् महावीर के काल से लेकर आज तक जैन-परम्परा में यह अवधारणा या साधना जीवित रही है। इसके साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाण विपुल मात्रा में पाए जाते हैं। न केवल इतना ही, बल्कि जैन धर्म के अनेक कथानकों में तो भगवान् ऋषभदेव के काल से लेकर भगवान् महावीर के काल तक मे अनेक साधकों के समाधिमरण सम्बन्धी अनेक निर्देश प्राप्त हैं। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में हमने इसी समाधिमरण सम्बन्धी साधना-विधि का प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका के आधार पर विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है और यह बताते हुए कि प्राचीनकाल में समाधिमरण को किस क्रम से और विधि से स्वीकार किया ज विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध को हमने सात अध्यायों में विभक्त किया है। प्रथम 'विषयप्रवेश' नामक अध्याय में हमने समाधिमरण की सामान्य चर्चा करते हुए "प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका' के रचनाकाल, कर्ता तथा इसकी विषय-वस्तु की विस्तार से चर्चा की है। इसमें सर्वप्रथम हमने यह बताया है कि 'प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका के कर्त्ता का कहीं भी कोई उल्लेख नहीं मिलता है। मात्र इतना माना जा सकता है कि इसकी रचना किसी पूर्वघर प्राचीन आचार्य ने की होगी, पर वे कौन थे ? किस परम्परा के थे ? उनका जन्म कहाँ हुआ था और वे किसके पास दीक्षित हुए थे, इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट निर्देश हमें नहीं मिलता है। प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा और काल के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता अर्द्धमागधी आगम-परम्परा से सम्बन्धित रहे होंगे और उनका काल ईसा की पाँचवीं-छठवीं शताब्दी से सातवीं शताब्दी के बीच कहीं रहा होगा। रचनाकाल के सन्दर्भ में विशेष समीक्षा करते हुए हमने यह पाया है कि जहाँ इसमें एक ओर प्राचीन आगम-ग्रन्थों एवं प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएं मिलती हैं, वहीं दसवीं शताब्दी में रचित वीरभद्र की 'आराधना-पताका' में तथा तेरहवीं शताब्दी में रचित 'प्रवचनसारोद्धार' में भी इसकी अनेको गाथायें यथावत् मिलती हैं। इस आधार पर तथा नन्दीसूत्र में इस ग्रन्थ का उल्लेख नहीं होने के आधार पर इसका काल ईसा की पांचवी शताब्दी के पश्चात् और दसवीं शताब्दी के पूर्व माना जा सकता है, किन्तु भगवती-आराधना की अपेक्षा इसमें विषयों का विस्तार अल्प होने से तथा परवर्तीकाल में प्रचलित "विजहणाद्वार" आदि का अभाव होने से तथा इसी प्रकार ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में लेखक के नाम, परम्परा आदि का अभाव होने से इसे लगभग छठवीं शताब्दी का ग्रन्थ माना जा सकता है। जहाँ तक प्रथम अध्याय में वर्णित इसकी विषय-वस्तु की चर्चा का प्रश्न है, हमने यह चर्चा पर्याप्त विस्तार के साथ प्रस्तुत की है और प्रस्तुत ग्रन्थ के बत्तीस द्वारों तथा कुछ द्वारों के उपद्वारों की विषय-वस्तु का भी उल्लेख कर दिया है, जिससे इस प्राचीनआचार्य विरचित आराधनापताका नामक इस ग्रन्थ का सम्यक् स्वरूप पाठकों के सामने स्पष्ट हो जाता है। इस प्रकार, इस शोध-प्रबन्ध का प्रथम अध्याय ग्रन्थ और ग्रन्थकार तथा उसके रचनाकाल की विस्तार से चर्चा करता है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का द्वितीय अध्याय दो खण्डों में विभक्त किया गया है। इसके प्रथमखण्ड में, आगम एवं आगमेतर जैन-साहित्य में समाधिमरण विषयक उल्लेख कहाँ और किस www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy