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________________ 182 साध्वी डॉ. प्रतिभा इसके अतिरिक्त, प्रस्तुत कथानक आवश्यकसूत्र में भी उपलब्ध होता है। हमारी दृष्टि में तो प्राचीन आचार्यकृत आराधनापताका के रचयिता आचार्य ने इस कथानक को' मरणसमाधि, भक्तपरिज्ञा आदि प्राचीन ग्रन्थों से ही ग्रहण किया होगा। जैन-परम्परा में यह कथानक विशेष रूप से प्रचलित रहा है, यही कारण है कि परवर्तीकाल में उत्तराध्ययनसूत्र की कमलसंयम की वृत्ति में भी इस कथानक का उल्लेख मिलता है। जहाँ तक दिगम्बर-परम्परा का प्रश्न है, प्रस्तुत कथानक हमें भगवती-आराधना में भी उपलब्ध होता है, यद्यपि भगवती-आराधना में यह कथानक अति संक्षिप्त रूप में मात्र एक गाथा में दिया गया है। उसमें यह बताया गया है कि सिद्धार्थ राजा के प्रिय पुत्र सुकौशल मुनि को पोग्गिलगिरि नामक पर्वत पर अपनी पूर्वजन्म की माता व्याघ्री के द्वारा खाए जाने पर भी वे उत्तमअर्थ (समाधिमरण) को प्राप्त हुए। इन उल्लेखों से यह निश्चित होता है कि जैन-परम्परा में प्रस्तुत कथानक ईसा की पाँचवीं शताब्दी के पूर्व भी प्रचलित रहा है, क्योंकि इस काल के पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्थों में यह कथानक प्राप्त होता है। प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका में समाधिमरण के सम्बन्ध में या क्रमांक 800 में पांडुपुत्रों की कथा का निर्देश दिया गया है, जो शत्रुजय पर्वत पर द्विमासिक संलेखना के साथ सिद्धि को प्राप्त हए। ज्ञाताधर्मकथा के सोलहवें अध्ययन अमरकंका में सकमालिका का वर्णन आता है, जो साध्वी-दीक्षा अंगीकार कर लेती है, परन्तु उसका मन संयमित न हो सका और वह वहाँ भी शिथिलाचारिणी होकर स्वच्छन्द विचरने लगी। इस प्रसंग में उसने एक बार पाँच पुरुषों के साथ विलास करती एक वेश्या को देखा। यह दृश्य देखकर सकमालिका के मन में इसी प्रकार के सुखभोग की लालसा उत्पन्न हो गई। वह संकल्प करती है मेरी तपस्या का फल हो, तो यही कि मैं इसी प्रकार का सुख प्राप्त करूं। अन्त में मरकर वह देवपर्याय तो पाती है, मगर वहाँ भी देवगणिका के रूप में उत्पन्न होती है। देवभव का अन्त होने पर पंचालनृपति राजा द्रुपद की कन्या के रूप में उसका जन्म हुआ। उचित वय होने पर स्वयंवर का आयोजन किया गया। स्वयंवर में वासुदेव श्रीकृ ष्ण, पाण्डव आदि सहस्रों राजा आदि उपस्थित हुए। द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों का वरण किया। उसके इस स्वयंवरण पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की, मानों वह एक साधारण-सी घटना थी। द्रौपदी पाण्डवों के साथ हस्तिनापुर चली गई। वहाँ भी कुछ विधि-विधान हुए। बारी-बारी से वह पाण्डवों के साथ मानवीय-सुखों का उपभोग करने लगी। एक बार नारदजी अचानक हस्तिनापुर जा पहुँचे। द्रौपदी के सिवाय सबने उनकी यथोचित प्रतिपत्ति की। नारदजी द्रौपदी से रुष्ट हो गए। द्रोपदी से बदला लेने के विचार से वे धातकीखण्ड द्वीप में अमरकंका के राजा पद्मनाभ के यहाँ गए। द्रौपदी के रूप-लावण्य की अतिशय प्रशंसा करके उन्होंने पद्मनाभ को ललचाया। पद्मनाभ ने दैवी सहायता से द्रौपदी का हरण करवाया। द्रौपदी के संस्कार अब बदल चुके थे। वह पतिव्रता थी। पद्मनाभ ने द्रौपदी को भोग के लिए आमंत्रित किया, तो उसने छ: महीने का समय मांगा। उसे विश्वास था कि इस बीच उसके रिश्ते के भाई श्रीकृष्ण आकर अवश्य उसका उद्धार करेंगे। हुआ भी वही, पाण्डवों को साथ लेकर कृष्णजी अमरकंका राजधानी जा पहुंचे। उन्होंने पद्मनाभ को युद्ध में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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