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________________ जैन-आचार के सामान्य नियम 445 का अर्थ है-प्रवृत्ति को मर्यादित अथवा सीमित करना। 58 संयमपूर्ण जीवन के लिए त्याग आवश्यक है, इस रूप में प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग भी माना जा सकता है। नित्य कर्मों में प्रत्याख्यान का समावेश इसलिए किया गया है कि साधक आत्मशुद्धि के लिए प्रतिदिन यथाशक्ति किसी न किसी प्रकार का त्याग करता है। नियमित त्याग करने से अभ्यास होता है, साधना परिपुष्ट होती है और जीवन में अनासक्ति का विकास और तृष्णा मंद होती है। दैनिक प्रत्याख्यान में सामान्यतया उस दिवस-विशेष के लिए कुछ प्रतिज्ञाएँ ग्रहण की जाती हैं, जैसे सूर्य उदय के पश्चात् एक प्रहर अथवा दो प्रहर आदि तक कुछ नहीं खाना, या सम्पूर्ण दिवस के लिए आहार का परित्याग करना, अथवा केवल नीरस या रूखा भोजन करना आदि-आदि। प्रत्याख्यान के दो रूप हैं - 1. द्रव्य-प्रत्याख्यान - आहार-सामग्री, वस्त्र-परिग्रह आदि बाह्य-पदार्थों में से कुछ को छोड़ देना द्रव्य-प्रत्याख्यान है। 2. भाव• प्रत्याख्यान - राग, द्वेष, कषाय आदिअशुभ मानसिक-वृत्तियों का परित्याग करना भावप्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान के मूलगुण-प्रत्याख्यान और उत्तरगुण-प्रत्याख्यान-ऐसे दो भेद भी किए हैं। नैतिक-जीवन के विकास में मुख्य व्रतों का ग्रहण मूलगुण-प्रत्याख्यान कहलाता है। मूलगुण और उत्तरगुण-प्रत्याख्यान भी सर्व, अर्थात् पूर्णरूप में पालनीय और देश, अर्थात् आंशिक रूप से पालनीय होते हैं। इस आधार पर चार भाग हो जाते हैं - 1. सर्व मूलगुणप्रत्याख्यान-श्रमण के पाँच महाव्रतों की प्रतिज्ञा, 2. देश मूलगुण-प्रत्याख्यान - गृहस्थजीवन के पाँच अणुव्रतों की प्रतिज्ञा , 3. सर्व उत्तरगुण-प्रत्याख्यान- उपवास आदि की प्रतिज्ञाएँ, जो गृहस्थ और श्रमण-दोनों के लिए हैं, 4. देश उत्तरगुण-प्रत्याख्यान - गृहस्थ के गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों की प्रतिमाएँ। प्रकारान्तर से भगवतीसूत्र में प्रत्याख्यान के दसभेद वर्णित हैं - 1.अनागत - पर्व की तपसाधना को पूर्व में ही कर लेना, 2. अतिक्रान्त - पर्व-तिथि के पश्चात् पर्व-तिथि का तप करना, 3. कोटि सहित- पूर्व गृहीत नियम की अवधि समाप्त होते ही बिना व्यवधान के भविष्य के लिए प्रतिज्ञा ग्रहण कर लेना; 4. नियंत्रित - विघ्न-बाधाओं के होने पर पूर्व संकल्पित व्रत आदि की प्रतिज्ञा कर लेना ; 5.साकार (सापवाद), 6. निराकार (निरपवाद), 7. परिमाण कृत (मात्रा सम्बन्धी), 8. निरवशेष (पूर्ण),9. सांकेतिक - संकेत-चिह से सम्बन्धित, 10. अद्धा-प्रत्याख्यान-समय-विशेष के लिए किया गया प्रत्याख्यान। आचार्य भद्रबाहु ने प्रत्याख्यान का महत्व बताते हुए कहा है कि प्रत्याख्यान करने से संयम होता है। संयम से आस्रव का निरोध होता है और आम्रव-निरोध से तृष्णा का क्षय होता है। " वस्तुतः, प्रत्याख्यान अमर्यादित जीवन को मर्यादित याअनुशासित बनाता है। जैन-परम्परा के अनुसार, आस्रव एवं बन्धन का एक कारण अविरति भी कहा गया है। प्रत्याख्यान अविरति का निरोध करता है। प्रत्याख्यान त्याग के संबंध में ली गई प्रतिज्ञा या आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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