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________________ 406 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन पर आयु एक साथ ही भोग ली जाती है। इसे ही आकस्मिकमरण या अकाल-मृत्यु कहते हैं। स्थानांगसूत्र में इसके सात कारण बताए गए हैं- 1. हर्ष-शोक का अतिरेक, 2. विष अथवाशस्त्र का प्रयोग, 3.आहार की अत्यधिकता अथवासर्वथा-अभाव, 4. व्याधिजनित तीव्र वेदना, 5. आघात, 6. सर्पदंशादि और 7. श्वास-निरोध।2 6. नाम कर्म जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नाम-कर्म विभिन्न परमाणुओं से जगत् के प्राणियों के शरीर की रचना करता है। मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्तित्व का निर्धारक-तत्त्व कह सकते हैं। जैन-दर्शन में व्यक्तित्व के निर्धारक-तत्त्वों को नाम-कर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जिनकी संख्या 103 मानी गई है, लेकिन विस्तारभय से उनका वर्णन सम्भव नहीं है। उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप है- 1. शुभनामकर्म (अच्छा व्यक्तित्व) और 2. अशुभनामकर्म (बुरा व्यक्तित्व)। प्राणी-जगत् में जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका प्रमुख कारण नाम-कर्म है। शुभनाम-कर्म के बन्धके कारण- जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण माने गए हैं- 1. शरीर की सरलता, 2. वाणी की सरलता, 3. मन या विचारों की सरलता, 4. अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या सामञ्जस्यपूर्ण जीवन।63 शुभनामकर्मका विपाक- उपर्युक्त चार प्रकार के शुभाचरणसे प्राप्त शुभ व्यक्तित्व का विपाक 14 प्रकार का माना गया है- 1. अधिकारपूर्ण प्रभावक-वाणी (इष्ट शब्द), 2. सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट रूप), 3. शरीर से नि:सृत होने वाले मलों में भीसुगंधि (इष्ट गंध), 4. जैवीय-रसों की समुचितता (इष्ट रस), 5. त्वचा का सुकोमल होना (इष्ट स्पर्श), 6. अचपल योग्य गति (इष्ट गति),7. अंगों का समुचित स्थान पर होना (इष्ट स्थिति), 8. लावण्य, 9. यश:कीर्ति का प्रसार (इष्ट यश: कीर्ति), 10. योग्य शारीरिक-शक्ति (इष्ट उत्थान, कर्म, बलवीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम), 11. लोगों को रुचिकर लगे, ऐसा स्वर, 12. कान्त स्वर, 13. प्रिय स्वर और 14. मनोज्ञ स्वर।64 अशुभनामकर्म के कारण-निम्न चार प्रकार के अशुभाचरणसे व्यक्ति (प्राणी) को अशुभ व्यक्तित्व की उपलब्धि होती है- 1. शरीर की वक्रता, 2. वचन की वक्रता, 3. मन की वक्रता, 4. अहंकार एवं मात्सर्य-वृत्ति या असामंजस्यपूर्ण जीवन। ___ अशुभनामकर्म का विपाक-1.अप्रभावकवाणी (अनिष्ट शब्द), 2. असुन्दर शरीर (अनिष्ट स्पर्श), 3. शारीरिक-मलों का दुर्गन्धयुक्त होना (अनिष्ट गंध), 4. जैवीयरसों की असमुचितता (अनिष्ट रस), 5. अप्रिय स्पर्श, 6. अनिष्ट गति, 7. अंगों का समुचित स्थान पर न होना (अनिष्ट स्थिति), 8. सौन्दर्य का अभाव, 9. अपयश, 10. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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