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________________ कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व 375 दूसरे को समझना चाहिए। सभी को जीवित रहने की इच्छा है। कोई भी मरना नहीं चाहता। सभी को अपने प्राण प्रिय हैं। सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है, इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है, जिसके द्वारा किसी भी प्राण का हनन नहीं हो। बौद्ध-दर्शनका दृष्टिकोण __बौद्ध-दर्शन में भी सर्वत्र आत्मवत् दृष्टि को ही कर्म के शुभत्व का आधार माना गया है। सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि जैसा मैं हूँ, वैसे ही ये दूसरे प्राणी भी हैं और जैसे ये दूसरे प्राणी हैं, वैसा ही मैं हूँ, इस प्रकार सभी को अपने समान समझकर किसी की हिंसा या घात नहीं करना चाहिए। धम्मपद में भी यही कहा है कि सभी प्राणी दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से सभी भयखाते हैं, सबको जीवन प्रिय है; अत: सबको अपने समान समझकरन मारें और न मारने की प्रेरणा करें। सुख चाहनेवाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से जो दु:ख देता है, वह मरकर सुख नहीं पाता, लेकिन जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से दु:ख नहीं देता, वह मरकर सुख को प्राप्त होता है। हिन्दू-धर्म का दृष्टिकोण ___मनुस्मृति, महाभारत तथा गीता में भी हमें इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। गीता में कहा गया है कि जो सुख और दुःख, सभी में दूसरे प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखकर व्यवहार करता है वही परमयोगी है। महाभारत में अनेक स्थानों पर इस विचार का समर्थन मिलता है। उसमें कहा गया है कि जैसा अपने लिए चाहता है, वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति भी करे। त्याग-दान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, सभी में दूसरे को अपनी आत्मा के समान मानकर व्यवहार करना चाहिए। जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों के प्रति अपने जैसा व्यवहार करता है, वही स्वर्ग के सुखों को प्राप्त करता है। जो व्यवहार स्वयं को प्रिय लगता है, वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति किया जाए। हे युधिष्ठिर! धर्म और अधर्म की पहचान का यही लक्षण है। 32 पाश्चात्य-दृष्टिकोण पाश्चात्य-चिन्तन में भी सामाजिक-जीवन में दूसरों के प्रति व्यवहार करने का यह दृष्टिकोण स्वीकृत है कि जैसा व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो, वैसा ही दूसरे के लिए करो। कांट ने भी कहा है कि केवल उसी नियम के अनुसार काम करो, जिसे तुम एक सार्वभौम नियम बन जाने की इच्छा करते हो। मानवता, चाहे वह तुम्हारे अन्दर हो, या किसी अन्य के, सदैव साध्य बनी रहे, साधन कभी न हो। कांट के इस कथन का आशय भी यही है कि नैतिक-जीवन के संदर्भ में सभी को अपने समान मानकर व्यवहार करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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