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________________ 258 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन आनन्द का प्रत्यय पूर्णतया बाह्य नहीं होता। वह वस्तुओं की अपेक्षा हमारी चेतना पर निर्भर होता है, अत: आनन्द को आत्मा का ही स्वलक्षण मानना होगा। जैन-दर्शन का दृष्टिकोण तर्कसंगत है। भारतीय-दर्शन में न्याय-वैशेषिक एवं सांख्य विचारणाएँ सौख्य या आनन्दको आत्मा कास्वलक्षण नहीं मानती। सांख्य के अनुसार आनन्द सत्त्वगुण का परिणाम है, अत: वह प्रकृति का ही गुण है, आत्मा का नहीं। न्याय-वैशेषिक-दर्शन उसे चेतना पर निर्भर मानते हैं, चूँकि उनके अनुसार चेतना भी आत्मा का स्वलक्षण नहीं होकर आगन्तुक-गुण है, अत: सुख भी आगन्तुक-गुण है। इस सम्बन्ध में वेदान्त का दृष्टिकोण जैन-दर्शन के निकट है। उसमें ब्रह्म को सत् और चित् के साथ-साथ आनन्दमय भी माना गया है। आत्मा के इन चार मूलभूत लक्षणों की चर्चा के उपरान्त हम जैन-दर्शन में आत्मासम्बन्धी अन्य मान्यताओं की चर्चा तथा उनकी नैतिक समीक्षा करेंगे। 7. आत्मा परिणामी है जैन-दर्शन आत्मा को परिणामी मानता है और सांख्य एवंशांकर-वेदान्त आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानते हैं। बुद्ध के समकालीन विचारक पूर्णकाश्यप भी आत्मा को अपरिणामी मानते थे। आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानने का तात्पर्य यह है कि आत्मा में कोई विकार, परिवर्तन या स्थित्यन्तर नहीं होता। पूर्णकाश्यप के सिद्धान्तों का वर्णन बौद्ध-साहित्य में इस प्रकार मिलता है- 'अगर कोई क्रिया करे, कराए, काटे, कटवाए, कष्ट दे या दिलाए, चोरी करे, प्राणियों को मार डाले, परदारागमन करे या असत्य बोले, तो भी उसे पाप नहीं लगता। तीक्ष्णधार वाले चक्र से यदि कोई इस संसार के प्राणियों के मांस का ढेर लगा दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं, दोष नहीं होता। दान, धर्म और सत्यभाषण से कोई पुण्यप्राप्ति नहीं होती।'36 इसधारणा को देखकर सहजहीशंका होती है कि इस प्रकार का उपदेश देनेवाला व्यक्ति कोई यशस्वी, लोक-सम्मानित व्यक्ति नहीं हो सकता, वरन् कोईधूर्त होना चाहिए, लेकिन पूर्णकाश्यप एक लोकपूजित शास्ता थे, अत: यह निश्चित है कि यह नैतिकदृष्टिकोण उनका नहीं हो सकता, लेकिन यह उनके अक्रिय-आत्मवाद का नैतिक-फलित है, जो उनके विरोधी दृष्टिकोण वाले लोगों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। फिर भी, यह सत्य है कि पूर्णकाश्यप आत्मा को अपरिणामी मानते थे। उनकी उक्त मान्यता का भ्रान्त निष्कर्ष निकालकर उन्हें अनैतिक-आचरण का समर्थक दर्शाया गया है। यह बता पाना तो बड़ा कठिन है कि सांख्य-परम्परा और पूर्णकाश्यप की यह परम्परा एक ही थी अथवा अलगअलग। इनमें कौन पूर्ववर्ती थी, इसका भी निश्चय नहीं किया जा सकता। यद्यपि धर्मानन्द कौसम्बी और राहुल सांस्कृत्यायन यह सिद्ध करते हैं कि पूर्णकाश्यप की इस परम्परा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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