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________________ - 16 - ही इयत्ता है। फलतः, इतने मात्र से वे अपने को कृतकृत्य और अपने अध्ययन को परिपूर्ण मान लेते हैं। पालि और प्राकृतों के बीच बहुजन भारतीय समाज का हजारों-हजार वर्षों का सांस्कृतिक वैभव सुरक्षित है। उसके माध्यम से ही विश्व के गोलार्द्ध तक भारतीयों का मानवीय सन्देश पहुँच सका था। अध्ययन एवं अनुसंधान के क्षेत्र में उन धाराओं के प्रति उपेक्षा की वृत्ति कितनी आत्मघाती है, यह कहने की बात नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में लेखक ने जैन, बौद्ध और गीता के अध्ययन में भारतीय संस्कृति के त्रिविध स्रोतों का प्रत्यक्षतः उपयोग कर भारतीय आचारदर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का पूरा ध्यान रखते हुए प्रामाणिकता के साथ गम्भीर तथ्यों को उजागर किया है। यही उनके ग्रन्थ की विशेषता है। डॉ. जैन पाश्चात्य नीतिशास्त्र के सफल अध्यापक रहे हैं, इसलिए उन्होंने जगहजगह पर नीतिसम्बन्धीउन प्रमुख प्रश्नों को भी स्थान दिया है, जिनके समाधान एवं विवेचन की नई पाश्चात्य पद्धति को ध्यान में रखकर प्राचीन भारतीय शास्त्रों द्वारा होना चाहिए था। वस्तुत: इस दिशा में उनके विश्लेषण और निष्कर्ष उनके गम्भीर अध्ययन और चिन्तन के परिणाम हैं। इन ग्रन्थ के सम्पूर्ण वक्तव्य का प्रमुख केन्द्रबिन्दुसमता या समत्वयोग है, जिससे अनुप्राणित इनके समस्त विश्लेषण और निष्कर्ष हैं, जिनका आवश्यक सनिवेश ग्रन्थ में किया गया है। समतामूलक आचारपक्ष की प्रामाणिकता के लिए यह आवश्यक था कि सम्यक्त्व क्या है ? और उसके निर्धारक तत्त्व क्या हैं ? उनका विवेचन किया जाए। मिथ्या भ्रम या अन्धविश्वास से सम्यक्त्व को व्यावृत्त करने के लिए यह भी अनिवार्य हो जाता है कि एक ओर तो मिथ्यादृष्टियों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण हो और दूसरी ओर, सम्यक्त्व का सत्य की अवधारणा के साथ जो अकाट्य सम्बन्ध है, उसका स्पष्टीकरण किया जाए। सम्यक्त्व का सत्य के साथ जैसे अविसंवाद आवश्यक है, वैसे ही सम्यक्त्व के कारण या साधनों की विशुद्धि और उनकी तथ्यात्मकता के साथ सुसंगति का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस दिशा में तपसू और योग-साधना का विश्लेषण एवं परीक्षण आवश्यक हो जाता है। लेखक ने बड़ी कुशलता से इन मूलभूत मुद्दों पर जैन, बौद्ध तथा गीता के दार्शनिक निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। मूलत:, नीति का प्रश्न आध्यात्मिक या भावात्मक नहीं है, अपितु सामाजिक एवं व्यावहारिक है। कम से कम उसकी परीक्षा की भूमि अवश्य ही समाज है। भारतीय संस्कृति के वैराग्यवाद के सम्बन्ध में ऐसीधारणा बन गई है कि वैराग्यवाद का पर्यवसान सामाजिक समस्याओं से पलायन में होता है। यद्यपि यह आक्षेप सम्पूर्ण भारतीय जीवनदृष्टियों पर है, तथापि विशेषकर श्रमणधाराओं और वेदान्त पर इसका समर्थन आधुनिक विचारकों द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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