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________________ 154 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन उसके नैतिक-जीवन का प्रतिमान अभिव्यक्त करती है। रस्किन की रसेन्द्रिय या नैतिकइन्द्रिय की तुलना श्रद्धा से की जा सकती है। जिस प्रकार रस्किन के अनुसार व्यक्ति की रुचि नैतिकता का प्रतिमान है, उसी प्रकार भारतीय-दर्शन में श्रद्धा नैतिकता का प्रतिमान है। गीता में कहा गया है कि पुरुष श्रद्धामय है और उसकी जैसी श्रद्धा होती है, उसी के अनुरूप वह हो जाता है। गीता के इस कथन का रस्किन के रुचि-सिद्धान्त से बहुत कुछ साम्य है। जैन-परम्परा के सम्यग्दर्शन को रस्किन के रुचि सिद्धान्त के तुल्य माना जा सकता है, अन्तर यही है कि जैन-परम्परा सम्यग्दर्शन (भावात्मक श्रद्धा) पर और रस्किन रुचि पर बल देते हैं। फिर भी, दोनों के अनुसार वही नैतिकता का निर्णायक-प्रतिमान है, यह महत्व की बात है। रसेन्द्रियवादया रुचि-सिद्धान्त की मूलभूत कमजोरी यह है कि वह शिव और सुन्दर में अन्तर स्थापित नहीं कर पाता। जैन-विचारकों ने इस कठिनाई को समझा था और इसीलिए उन्होंने सम्यग्दर्शनको महत्वपूर्ण मानते हुए भी उसे सम्यक्चारित्र से अलग किया। यह ठीक है कि रुचि या दृष्टि के आधार पर चारित्र का निर्माण होता है। फिर भी, दोनों ही पृथक्-पृथक् पक्ष हैं। उनको एक-दूसरे से मिलाने की गलती नहीं करनी चाहिए। (इ) सहानुभूतिवाद और जैन-दर्शन-सहानुभूतिवाद आन्तरिक-विधानवाद का एक प्रमुख प्रकार है। इसके अनुसार अन्तर्दृष्टि या प्रज्ञा सहानुभूत्यात्मक है। सहानुभूति वह तत्त्व है, जो सद्गुण का मूल्यांकन करता है और जिसके आधार पर किसी कर्म को सद्गुण कहा जाता है। सहानुभूति सद्गुण का आधार और स्त्रोत-दोनों ही है। एडमस्मिथ इस दृष्टिकोण के प्रमुख प्रतिपादक हैं। समकालीन मानवतावादी विचारक भी इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। रसल प्रभृति कुछ विचारक मानव में निहित इसी सहानुभूति के तत्त्व के आधार पर नैतिकता की व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार नैतिकता ईश्वरीय-आदेश या पारलौकिक-जीवन के प्रति प्रलोभन या भय पर निर्भर नहीं है, वरन् मानव की प्रकृति में निहित सहानुभूति के तत्त्व पर निर्भर है। जैन-दर्शन से इस दृष्टिकोण की तुलना करने पर हम यह पाते हैं कि जैन-विचारकों ने भी मानव में निहित इस सहानुभूति के तत्त्व को स्वीकार किया है। उनके अनुसार तो सभी प्राणियों में परस्पर सहयोग की वृत्ति स्वाभाविक है, लेकिन सहानुभूति का तत्त्व प्राणी-प्रकृति का अंग होते हुए भी सभी में समान रूप से नहीं पाया जाता है, अत: सहानुभूति के आधार पर नैतिकता को पूर्णतया निर्भर नहीं किया जा सकता है। (ई) नैतिक-अन्तरात्मवाद और जैन-दर्शन-नैतिक-अन्तरात्मवादके प्रवर्तक जोसेफ बटलर हैं। इनके अनुसार, सद्गुण वह है, जो मानवप्रकृति के अनुरूप हो और दुर्गुण वह है, जो मानवप्रकृति के विपरीत हो। दूसरे शब्दों में, सद्गुण मानवप्रकृति के नियमों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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