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________________ श्रमणों के संस्मरण Jain Education International समय व्यतीत हो गया था । मिट्टी के बर्तन पर नारियल का नियम आचार्य महाराज ने कोन्नूर में वृत्ति परिसंख्यान तप प्रारम्भ किया था । उनकी प्रतिज्ञा बड़ी विलक्षण, किन्तु अत्यन्त विवेकपूर्ण थी। सात दिन पर्यन्त प्रतिज्ञा के अनुसार योग न मिलने से महाराज के छह उपवास हो गये। समाज के व्यक्ति सतत चिंतित रहते थे, जिस प्रकार आदिनाथ भगवान् को आहार न मिलने पर उस समय का भक्त समाज चिन्तातुर रहा था। सातवें दिन लाभान्तराय का विशेष क्षयोपशम होने से एक गरीब गृहस्थ भीमप्पा के यहाँ गुरुदेव को अनुकूलता प्राप्त हो गई। महाराज का नियम था कि यदि मिट्टी के बर्तन पर नारियल रखकर कोई पड़गाहेगा, तो मैं आहार लूंगा। गरीब भीमप्पा की दरिद्रता वरदान बन गई। उस बेचारे ने निर्धनतावश मिट्टी का कलश लेकर पड़गाहा और उसने महाराज को आहार देने का उज्ज्वल सुयोग प्राप्त किया। प्रतिभा द्वारा प्रभावना एक बार आचार्य महाराज हुबली पहुँचे। वहाँ अन्य सम्प्रदाय के अनेक साधु विद्यमान थे। उनके संघनायक सिद्धारूढ़ स्वामी लिंगायत साधु महान् विद्वान् थे । आचार्यश्री की सर्वत्र श्रेष्ठ साधु के रूप में कीर्ति का प्रसार हो रहा था, इसलिए वे पालकी में आरूढ़ होकर अपने शिष्य समुदाय के साथ आचार्य महाराज के निकट आकर बैठ गए। अपने सम्प्रदाय के विशेष अहंकारवश उन्होंने जैन गुरु को प्रणाम करना अपनी श्रद्धा के प्रतिकूल समझा था। आचार्य महाराज की इस विषय में उपेक्षा- दृष्टि रहती थी, कारण कि प्रणाम करने या न करने से उनकी न कोई हानि होती थी और न लाभ ही होता था । उस समय नेमिसागरजी शास्त्र पढ़ रहे थे। सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व का प्रकरण चल रहा था। कुछ समय तक लिंगायत स्वामी ने शास्त्र सुना और प्रश्न किया, "बार-बार सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व का शब्द सुनने में आ रहा है। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का क्या भाव है ?" महा मिथ्यात्व के रोग में ग्रस्त व्यक्ति को कैसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का भेद समझाया जावे ? उत्तर देना सामान्य बात नहीं थी । उत्तर तो कोई भी दे सकता था, किन्तु उत्तर ऐसा आवश्यक था, जो हृदय को समाधानप्रद हो तथा जिससे कटुता उत्पन्न न हो । आचार्य महाराज की प्रतिभा ने एक सुन्दर समाधान सोचा। उन्होंने ये अनमोल शब्द कहे - " भीतर देखना सम्यक्त्व है। बाहर देखना मिथ्यात्व है । " महाराज ने कन्नड़ी भाषा में ये वाक्य कहे थे । इसे सुनते ही उसका हृदय कमल खिल गया। उस ज्ञानवान साधु को अवर्णनीय आनन्द आया। ५२५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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