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________________ आचार्य-पद १३६ इस प्रकार अपनी अद्वितीय आत्मनिष्ठा और महाव्रत की श्रेष्ठ समाराधना के फलस्वरूप उनका अद्भुत विकास हो रहा था । सर्वत्र उनका सुयश फैल रहा था। अन्य उनके दर्शन के लिए सर्वत्र लालायित हो रहे थे। यह दर्शन राजनीति के नेताओं का दर्शन नहीं था। यह तरन तारन श्री गुरु की मनोयोग तथा भक्ति पूर्वक वंदना थी। राज परिवार के व्यक्तियों का देखना, बड़े-बड़े लोकसेवकों के स्वागतार्थ लाखों व्यक्तियों देखने को जाने में और आत्मशांति के लिए शांतिसागर महाराज के पास दर्शनार्थ जाने में बड़ा अन्तर है। यहां दर्शन का भाव चिंतामणि तुल्य विभूति का दर्शन कर आत्मा को अक्षय सुख के पथ में लगाना है। आचार्यश्री का संघ बढ़ता हुआ अतिशय क्षेत्र दहीगांव तथा नाते - पुते होते हुए फलटण पहुंचा। उन्होंने वहां के भव्य जिनालयों का दर्शन किया। फलटण के राजा साहब ने आकर महाराज का दर्शन करके अपने को कृतार्थ माना । धर्म की अच्छी प्रभावना हुई । कुम्भज चातुर्मास इसके अनंतर संघ का शुभागमन अतिशय क्षेत्र बड़गांव की तरफ हुआ। वहाँ से चलकर संघ बारामती पहुंचा। उस समय वहां पंचकल्याणक महोत्सव था । आचार्यश्री अलौकिक पुण्य से वह महोत्सव चिरस्मरणीय हो गया । पश्चात् कोल्हापुर सांगली की तरफ विहार करते हुए महाराज बाहुबलि कुम्भोज पहुंचे। वहां ही उन्होंने सन् १६२७ का अपना वर्षायोग व्यतीत किया । बहुसंख्यक श्रावक, श्राविकाओं ने गुरुदर्शन का लाभ ले पुण्योपार्जन किया । अनेक व्यक्तियों ने प्रतिमा स्वरूप अनेक व्रत ग्रहण किए थे । आचार्यश्री ने व्रतदान द्वारा अनेक जीवों का उद्धार किया था । चारित्र - चक्रवर्ती का अंतःकरण मैंने (लेखक ने देखा है कि जिनबिम्ब, जिनागम तथा धर्मायतनों की हा होने पर उनके (आचार्य श्री के) धर्ममय अंत:करण को आघात पहुँचता था, किन्तु वे वैराग्यभावना के द्वारा अपनी शांति को सदा अक्षुण्ण रखते थे। Jain Education International -समता एवं सजग वैराग्य, पृष्ठ ६८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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