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________________ ४१६ सूत्रकृतांग सूत्र सर्वसत्त्वेषु दण्डो नो निक्षिप्तो भवति, तदेवं जानीत निर्ग्रन्थाः तदेवं ज्ञातव्यम। ___गवांश्च उदाह-निर्ग्रन्थाः खलु प्रष्टव्या आयुष्मंतो निर्ग्रन्थाः ! इह खलु परिव्राजकाः वा परिवाजिका वा अन्यतरेभ्यस्तीर्थायत नेभ्य आगत्य धर्मश्रवणप्रत्ययमुपसंक्रमेयः ? हन्त उपसंक्रमेयुः। किं तेषां तथाप्रकाराणां धर्म आख्यातव्यः ? हन्त आख्यातव्यः । ते चैवमुपस्थापयितुं यावत् कल्प्यन्ते ? हन्त कल्प्यन्ते । कि ते तथाप्रकारा: कप्यन्ते संभोजयितुम् ? हन्त कल्प्यन्ते। ते खलु एतद्रूपेण विहाणा विहरन्तस्तथैव व यावदागारं बजेयुः ? हन्त बजेयः । ते च तथा काराः कल्प्यन्ते संभोजयितुम् ? नासमर्थः समर्थः । ते ये ते जीवाः ये घरतः नो कल्प्यन्ते संभोजयितुम, ते ये ते जीवा: आरात् कल्प्यन्ते संभोजयितुम् ? ते ये ते जीवा इदानीं नो कल्प्यन्ते संभोजयितुम्, परतोऽश्रमणां आरात् श्रमणः इदानीमश्रमणः। अश्रमणेन साध नो कल्प्यन्ते श्रमणानां निर्ग्रन्थानां संभोक्त तदेवं जानीत निर्ग्रन्थाः तदेवं ज्ञातव्यम् ।।सू० ७८।। अन्वयार्थ (भगवं च उदाहु) भगवान् गौतम स्वामी कहते हैं कि (णियंठा खलु पुच्छियया) निग्रन्थों से यह बात पूछी जाती है, (आउसंतो नियंठा ! इह खलु संतेगइया मणुरसा भवंति) आयुष्मन् निर्ग्रन्थो ! इस जगत् में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, (तेसिं च गं एवं वृत्तपुर भवइ) जो इस प्रकार प्रतिज्ञा करते हैं कि (जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अगरिय पवइए) ये जो दीक्षा लेकर घरबार छोड़कर अनगार धर्म में प्रवदित हो गए हैं, (एएस आमरणांताए दंडे णिक्खित्त) इनको मरणपर्यन्त दण्ड देने का मैं त्याग करता हूँ, (जे इमे अगारमावसंति एएसि णं आमरणताए दंडे को णिदिखत्तो) परन्तु जो लोग (ये) ग. में निवास करते हैं --गृहस्थ हैं, उनको मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग मैं नहीं करता, (केइ र णं लमण जाव बासाइं चउपंचमाई छहसमाई अप्पयरो वा ज्जयरो वा देसं दुईज्जिता अगारमावसेज्जा ?) अब मैं पूछता हूँ कि उन श्रमणों में से कई श्रमण चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या बहुत देशों को विचरकर क्या पुनः गृहस्थ बन जाते हैं ? (हंता आवसेज्जा) निर्ग्रन्थ लोग कहते हैं कि हाँ, वे गृहस्थ बन जाते हैं । (तस्स णं तं गारत्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे भंगे भवइ ?) भगवान् गौतम----"उन गृहस्थों की हिंसा करने वाले उस प्रत्याख्यानी पुरुष का वह प्रत्याख्यान क्या भंग हो जाता है ?"(णो इगट्ठ सम8) निर्ग्रन्थ नहीं, ऐसी बात सम्भव नहीं है, अर्थात् साधुत्व को छोड़कर पुनः गृहवास स्वीकार करने वाले भूतपूर्व श्रमणों को मारने से भी उस प्रत्याख्याती का प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। (एवमेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहि दंडे णिक्खित्त थावरेहि पाहि दंडे णो णिक्खित्ते तस्स णं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भवइ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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