SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान ते णं तत्थ देवा भवंति) जैसे कि महान् ऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महापराक्रमयुक्त, महायशस्वी, महाबल से युक्त, महान् प्रभावशाली और महासुखदायी जो देवलोक हैं, वे उनमें देवरूप में उत्पन्न होते हैं। (महड्ढिया महज्जुइया जाव महासुक्खा ) वे देव महान् ऋद्धिशाली, महा कान्तिमान्, यहाँ तक कि महान् सुखों से सम्पन्न होते हैं। (हारविराइयवच्छा) उनके वक्षस्थल हारों से सुशोभित रहते हैं (कडग तुडियथंभियभुया) उनकी बाँहों में कड़े, केयूर (बाजूबंद) आदि आभूषण पड़े रहते हैं। (अंगयकुंडलमट्ठगंडयलकन्नपीठधारी) उनके गाल अंगद और कुडल से सुशोभित रहते हैं, तथा कानों में वे कर्णफूल धारण करते हैं, (विचित्त हत्थाभरणा) हाथों में विविध आभूषण धारण किये रहते हैं, (विचित्त मालामउलिमउडा) उनके सिर पर विचित्र मालाओं से युक्त मुकुट होता है। (कल्लाणगंधपवरवत्थपरिहिया) वे कल्याणकारी सुगन्धित उत्तम वस्त्र पहनते है, (कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा) कल्याणकारी उत्तम माला तथा अंगलेपन को धारण करते हैं। (भासुरबोंदी) उनका शरीर प्रकाश से जगमगाता रहता है, (पलंबवणमालधरा) वे लम्बी वनमालाओं को धारण करने वाले देव होते हैं । (दिव्वेणं रूवेणं दिव्वेणं वन्नेणं दिव्वेणं गंघेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघाएणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्ढीए दिव्वाए जुत्तीए दिध्वाए पभाए दिवाए छायाए दिव्वाए अच्चाए दिव्वेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभद्दया यावि भवंति) अपने दिव्य रूप, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, दिव्य शरीर के संघयण, दिव्य स्थान, दिव्य ऋद्धि, द्युति, प्रभा, छाया (कान्ति), अर्चा (वृत्ति), तेज और लेश्याओं से दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए चमचमाहट करते हुए कल्याणमयी गति और स्थिति वाले तथा भविष्य में भद्रक होने वाले देवता बनते हैं । (एस ठाणे आरिए जाव सव्वदुक्खपहीणमग्गे) यह स्थान आर्य है यावत् समस्त दुःखों का क्षय करने वाला मार्ग है। (एगंतसम्मे सुसाहू) यह स्थान बिलकुल सम्यक् और उत्तम है । (दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए) इस प्रकार दूसरे स्थान धर्मपक्ष का विचार किया गया है । व्याख्या धर्मपक्षीय लोगों का आचार-विचार अधर्मपक्षीय लोगों के आचार-विचार एवं व्यवहार का वर्णन करने के पश्चात् अब इस सूत्र में शास्त्रकार धर्मपक्षीय मनुष्यों के आचार-विचार, स्वभाव और व्यवहार आदि का वर्णन करते हैं। जगत् में ऐसे कुछ उत्तम व्यक्ति होते हैं, जो आरम्भ और परिग्रह से सर्वथा दूर रहते हैं। वे धर्म के रंग में रंगे हुए होते हैं, धर्म के अनुसार ही चलते हैं, दूसरों को भी वे धर्म पर चलने की अनुज्ञा देते हैं, उन्हें इस संसार में धर्म के सिवाय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy