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________________ याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन ८६१ हो सकता, इस प्रकार का अपलाप करते हुए वे निह्नव लोग सर्वज्ञोक्त मार्ग पर श्रद्धा नहीं रखते, यह उनका अयाथातथ्य है । इसी प्रकार सर्वज्ञोक्त मार्ग पर श्रद्धा रखते हुए भी कुछ साधक मानसिक या शारीरिक दुर्बलता के कारण लिए हुए संयम भाररूपी दायित्व को वहन करने में असमर्थ होते हैं, जब ये संयमपालन करने में शिथिलता करते हैं तो आचार्य आदि उन्हें धर्मस्नेहवश वैसा न करने के लिए शिक्षा देते हैं, मगर वे अपनी उद्धतता के कारण शिक्षा देने वाले को ही अपशब्द कहने लगते हैं, यह भी चारित्रीय अयाथातथ्य है। सुसाधक को इस प्रकार के अयाथातथ्यों से बचना चाहिए। मूल पाठ विसोहियं ते अणुकाहयंते, जे आतभावेण वियागरेज्जा । अठ्ठाणिए होइ बहुगुणाणं, जे णाणसंकाइ मुसं वएज्जा ॥३॥ संस्कृत छाया विशोधितं तेऽनुकथयन्ति, ये आत्मभावेन व्यागृणीयुः । अस्थानिको भवति बहुगुणानां, ये ज्ञानशंकया मृषा वदेयुः ॥३।। अन्वयार्थ (ते विसोहियं अणकाहयंते) वे जामालि आदि निह्नव अच्छी तरह से शोधित इस जिनमार्ग की आचार्य परम्परागत व्याख्या से विपरीत प्ररूपण करते हैं, (जे आतभावेण वियागरेज्जा) जो अपनी रुचि के अनुसार आचार्य-परम्परा से विपरीत सूत्रों का अर्थ करते हैं। वे (बहुगुणाणं अट्ठाणिए होइ) उत्तम गुणों के भाजन नहीं होते हैं । (जे णाणसंकाइ मुतं वएज्जा) जो वीतराग के ज्ञान में शंका करके मिथ्याभाषण करते हैं, वे भी उत्तम गुणों के पात्र नहीं होते । भावार्थ वीतराग का मार्ग समस्त दोषों से रहित है, फिर भी अहंकारवश निह्नव आदि आचार्य-परम्परागत व्याख्या से विपरीत सूत्रों का अर्थ करते हैं। जो पुरुष अपनी रुचि के अनुसार परम्परागत व्याख्यान से भिन्न मनमाना व्याख्यान करते हैं, तथा वीतराग के ज्ञान में शंका करके मिथ्याभाषण करते हैं, वे उत्तम गुणों के भाजन नहीं होते। व्याख्या परम्परा से विरुद्ध व्याख्या, प्ररूपणा श्रेष्ठ गुणों की अपात्रता का कारण इस गाथा में शास्त्रकार ने अयाथातथ्य प्ररूपण करने वालों की मनोवृत्ति एवं उसके दुष्परिणामों पर प्रकाश डाला है । इसमें निम्न ३ प्रकार के अयाथातथ्य प्ररूपक बताये गये हैं--(१) परम्परागत व्याख्या के विपरीत प्ररूपणा करने वाले, (२) अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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