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नरकविभक्ति : पंचम अध्ययन-प्रथम उद्देशक
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संस्कृत छाया ते हन्यमाना नरके पतन्ति, पूर्णे दुरूपस्य महाभितापे । ते तत्र तिष्ठन्ति दुरूपभक्षिणः, त्रुट्यन्ते कर्मोपगताः कृमिभिः ।।२०।।
अन्वयार्थ (हम्ममाणा ते) परमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते हुए वे नारकी जीव (महाभितावे) महासन्ताप देने वाले (दुरुवस्स पुण्णे) विष्ठा और मूत्र आदि बीभत्स रूपों से परिपूर्ण (नरगे) दूसरे नरक में (पडंति) गिरते हैं । (ते तस्थ) वे वहाँ पर (दुरूवभक्खी) मल-मूत्र आदि घिनौनी कुरूप चीजों का भक्षण करते हुए (चिट्ठति) चिरकाल-बहुत लंबे आयुष्यकाल तक रहते हैं और (कम्मोवगया) कर्मों के वशीभूत होकर (किमीहि) कीड़ों के द्वारा (तुति) काटे जाते हैं।
भावार्थ
- नरकपालों द्वारा मारे जाते हुए वे नारकी जीव, उस नरक से निकल कर दूसरे ऐसे नरक में गिरते हैं, जो मल, मूल, मवादि आदि गंदी बीभत्स कुरूप वस्तुओं से भरा है तथा वहाँ वे मल-मत्र आदि घिनौनी वस्तुओं का भक्षण करते हुए चिरकाल ---दीर्घ आयुष्यकाल तक रहते हैं और वहाँ कीड़ों के द्वारा काटे जाते हैं।
व्याख्या
कितनी गंदी नरकभूमि में निवास ? इस गाथा में यह बताया गया है कि नारकी जीव एक नरक में से निकलकर दूसरे नरक में जाते हैं । वे सोचते हैं, चलो, इस नरकभूमि से तो छुट्टी मिलेगी, अब दूसरी नरकभू मि में जाकर सुख से रहेंगे, परन्तु उनकी यह आशा धूल में मिल जाती है, दूसरी नरकभूमि उसे भी बदतर और बढ़कर दुःखदायी मिलती है। वहाँ मल, मूत्र, मवाद आदि ही खाने-पीने को मिलते हैं, तथा रहने को भी मल-मूत्र, मवाद आदि गंदी चीजों से भरे स्थान मिलते हैं। नरक की कालकोठरी जेल की कालकोठरी से कई गुना अधिक भयंकर होती है। ऐसे असह्य दुःखप्रद एवं गंदगी भरे बीभत्स स्थान में नारकी जीव घुट-घुट कर अपनी लम्बी आयु पूरी करते हैं, इस पर भी तुर्रा यह कि नरकपालों द्वारा उत्पन्न किये हुए एवं परस्पर एक दूसरे द्वारा प्रेरित कीड़े उन्हें रात-दिन काटते रहते हैं । यह सब पापकर्मों की लीला है।
१. इस सम्बन्ध में आगम का पाठ प्रस्तुत है -“छट्ठीसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया
पहू महंताइं लोहिकुंथुरूवाई विउवित्ता अन्नमन्नस कार्य समतुरंगेमाणा अणुघायमाणा अणुघायमाणा चिट्ठति ।" नारकी जीव छठी और सातवीं नरकभूमि में अन्यन्त बड़ा रक्त का कुन्थुआ (कीड़ा) बनाकर परस्पर एक दूसरे के शरीर को हनन करते हैं।
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