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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक
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अन्वयार्थ (एरिसा) इस तरह की (जा) जो (वई) कथन है कि (गिहिणो अभिहडं) "गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार ( जिउ सेयं) साधु को खाना श्रेयस्कर है । (ण उ भिक्खणं) किन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ नहीं,” (एसा) यह बात (अग्गवेणु ब्व) बांस के अग्रभाग की तरह (करिसिता) कमजोर है, वजनदार नहीं है।
भावार्थ साधु को गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार खाना श्रेयस्कर है, किन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ आहार खाना श्रेयस्कर नहीं, इस तरह का जो आपका कथन है, वह युक्तिरहित होने के कारण बांस के अग्रभाग की तरह दमदार नहीं है।
व्याख्या
बांस के अग्रभाग की तरह युक्तिरहित पोचा कथन इस गाथा में 'गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार सेवन करना साधु के लिए श्रेयस्कर है,' अन्यतीथिकों के इस वाक्य का खण्डन किया है- 'एरिसा भिक्खणं ।' इसका आशय यह है कि अन्यतीथियों के इस कथन में कोई प्राचीन प्रमाण, कोई तर्कसंगत तथ्य, कोई हेतुसहित युक्ति, या कोई वजनदार प्राचीन वीतराग महर्षियों द्वारा चलायी हुई परम्परा से सम्मत नहीं है, जिसके बल पर इस बात को सिद्ध किया जा सके । इसलिए इस कथन को शास्त्रकार ने 'अग्गवेणु व्व करिसिता' कहकर बाँस के अग्रभाग की तरह दुर्बल बताया है । अर्थात् इस कथन में कोई दम नहीं है। इसलिए दम नहीं है कि गृहस्थों द्वारा साधुओं के लिए आरम्भ-समारम्भ करके बनाकर लाये हुए आहार में सरासर छह काया के जीवों का घात सम्भव है, साथ ही आधाकर्म, औद्देशिक आदि अनेक दोषों से युक्त अशुद्ध आहार होता है, जब कि साधुओं के द्वारा अनेक गृहस्थगृहों में गवेषणा करके लाया हुआ भुक्तशिष्ट आहार उद्गमादि दोषों से रहित, साधु के लिए आरम्भ-समारम्भ से वजित एवं अमृत भोजन होता है। भगवद्गीता में भी कहा है-"यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषः ।" इसलिए गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार यज्ञशिष्ट नहीं, अमृत नहीं, वह तो दोषों का भण्डार होता है।
मूल पाठ धम्मपन्नवणा जा सा, सारंभाण विसोहिआ। ण उ एयाहिं दिट्ठीहिं, पुव्वमासि पग्गप्पियं ॥१६॥
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