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________________ ४३८ सूत्रकृतांग सूत्र उस भोग्य सामग्री को लेने में साधु इतना कतराता नहीं। परन्तु जब सत्ताधीश या धनाढ्य देखते हैं कि अब यह साधु इतनी भोग्यसामग्री एवं सुख-सुविधाओं का उपभोग करने लग गया है और इसके साथ हमारा दिल खुल गया है तो वे फिर उनके अन्तरंग मित्र (जिगरी दोस्त) बनकर संयम-विघातक अन्यान्य भोगसामग्री के लिए आमंत्रण करते हैं- "हे महाभाग ! आयूष्मन् ! आप हमारे पूज्य हैं। आपके चरणों में दुनियाँ की सर्वश्रेष्ठ भोग्यसामग्री प्रस्तुत हैं। ये चीनांशुक आदि रेशमी कपड़े हैं । ये इत्र, तेल-फुलेल, सुगन्धिपूर्ण, पुटपाक, सेंट, लवेंडर आदि सुगन्धि युक्त पदार्थ हैं । ये कड़े, बजूबन्द, हार, अंगूठी आदि आभूषण हैं । ये नवयुवती गौरवर्णा मृगनयनी सुन्दरियां हैं। ये गद्दे, तकिये, पलंगपोश, पलंग आदि शय्या सामग्री है। ये सब इन्द्रियों और मन को प्रसन्न करने वाले उत्तमोत्तम भोग-साधन आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। हम इन्हें आपके चरणों में समर्पित करते हैं। आप इनका यथेष्ट उपयोग करके जीवन सफल करें। हम इन भोग्य पदार्थों के द्वारा आपका सत्कार करते हैं। 'पूजयामु तं' यह वाक्य दोनों गाथाओं में आया है, इसका रहस्य यह प्रतीत होता है कि सुविहित साधक साधुजीवन में त्याज्य भोग्यपदार्थों का सेवन करने में जब प्रवृत्त होता है, तब उसके मन में सहसा यह विचार भी उपस्थित होता है कि मेरे भक्त जब इन पदार्थों का उपभोग करते हुए मुझे देखेंगे तो उनके मन में मेरे प्रति अप्रतिष्ठा ---अश्रद्धा का भाव पैदा होगा। अत: मेरी प्रतिष्ठा, मेरी इज्जत भी मेरे भक्तवर्ग में बरकरार रहे, इस चिन्ता के निवारण के लिए दोनों गाथाओं में यह बात कही गई है कि राजा आदि नये भक्त बने हुए लोग ऐसे भोगसाधनों के उपभोग की ओर झुकने वाले साधु को कहते हैं -हे पूज्य, आप निश्चिन्त रहें। इन चीजों के उपभोग से आपकी पूजा-प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आएगी। हम आपकी पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं, सम्मान देते हैं । जब राजा सम्मान देता है तो प्रजा तो अवश्य ही देगी, क्योंकि प्रजा तो राजा का अनुसरण करती है । इस प्रकार साधु को अपनी पूजा-प्रतिष्ठा की ओर से आश्वस्त करने के लिए दो जगह एक से वाक्यों का प्रयोग किया गया है । साधु को भोगों का खुलकर उपभोग करने की दृष्टि से फिर वे क्या कहते हैं ? इसे बताते हैं मूल पाठ जो तुमे नियमो चिण्णो, भिक्खुभावंमि सुव्वया । आगारमावसंतस्स, सव्वो संविज्जए तहा ॥१८॥ संस्कत छाया यस्त्वया नियमश्चीर्णो भिक्षुभावे सुव्रत ! । आगारमावसतस्तव मर्वः संविद्यते तथा ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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