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________________ ३२४ सूत्रकृतांग सूत्र परिभ्रमण करता रहता है । अथवा या क्योंकि परनिन्दा पापों की जननी है. यह जानकर मुनिवर किसी प्रकार का अहंकार ( मद) नहीं करता । व्याख्या परतिरस्कार पर निन्दा दोषों को जननी पूर्वगाथा में परनिन्दा और मान से बचने का उपदेश दिया गया था । इस गाथा में भी यह उपदेश है । परन्तु इसमें इन दोनों से होने वाले अनन्तर कटु परिणाम और परम्परागत अनिष्टफल बताकर इन दोनों से मुनि को बचने का उपदेश दिया है। 'जो परिभवई संसारे परिवत्तई महं' इसके द्वारा शास्त्रकार ने परपरिभव एवं परनिन्दा का परम्परागत फल दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करना बताया है तथा 'अदु:खिणी उपाविया' कहकर परनिन्दा की अनन्तर फल उसे अनेक पापों की जननी बताया है । अथवा इन दोनों प्रकार के कटुफलों का शास्त्रकार ने कार्य-कारणभाव सम्बन्ध बताया है । 'अदु' और 'उ' शब्द कारणवाचक हैं | अनेक पापों का उपार्जन कारण है और उससे दीर्घकाल तक संसार परिभ्रमण कार्य है । सचमुच परनिन्दा या दूसरे की बदनामी, तिरस्कार, अपमान, लांछित करना, चुगली आदि सब 'परपरिवाद' नामक पापस्थान के अन्तर्गत हैं । साधु बनकर यदि कोई साधक दूसरे की निन्दा करता है या दूसरे से असूया - ईर्ष्या करता है तो समझना चाहिए उसके मन में किसी न किसी प्रकार का जाति आदि का अहंकाररूपी सर्प फन फैलाये बैठा है । इस प्रकार निन्दा या तिरस्कार करना भी अपने आप में असत्य का पाप है, फिर निन्दक के मन में मानकषाय, अपने आपको अधिक गुणी समझने का मोह (राग) और दूसरों को अपमानित तिरस्कृत करने का द्वेषरूप दोष उत्पन्न होता है । फिर ऐसा साधक अपने आपको उच्च और उत्कृष्ट सिद्ध करने के लिए दूसरों को बदनाम करता फिरता है, स्वयं में गुण न होते हुए भी गुण का प्रदर्शन करता है, दूसरे से जलकर उसको जनता की दृष्टि में गिराने का प्रयत्न करता है । इस प्रकार अपना स्वाध्याय, ध्यान, अध्ययन मनन, आत्मचिन्तन, परमात्मस्मरण वगैरह आत्मकल्याण की चर्या का अधिकांश समय वह परनिन्दा आदि में ही बिताकर तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा का उल्लंघनकर्त्ता होने से अदत्तादानरूप पाप का भागी तथा आज्ञाविराधक बनता है । कपटक्रिया करने से दाम्भिक और मायी मिथ्यादृष्टि बनता है । इस प्रकार रातदिन दूसरों की निन्दा करने की नये-नये दोषों को छिद्रों को देखने की फिराक में लगा रहता है, यह रौद्रध्यानरूप महाभयंकर पाप है । यों परपरिवाद या परपराभव नामक पाप के साथ-साथ साधक के जीवन में असत्य, दम्भ, साया ( कपट), मान, ईर्ष्या, द्वेष, असूया, रौद्रध्यान, भगवदाज्ञाविराधना, परदोषदृष्टि, संयम का नाश आदि अनेकों पाप जुड़ जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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