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________________ समय : प्रथम अध्ययन---तृतीय उद्देशक २३१ तथा समुत्पाद का अर्थ है--प्रादुर्भाव-उत्पत्ति । जो मनोज्ञ - शुभ अनुष्ठान नहीं हैं-वे अमनोज्ञ कहलाते हैं। अमनोज्ञ का अर्थ हुआ अशोभन अनुष्ठान --बुरा आचरण, खराब प्रवृत्ति । वह जिसकी उत्पत्ति में कारण है, वही दुःख है । समुप्पायं अजाणता-पूर्वोक्त दुःख की उत्पत्ति के कारण जो मिथ्यात्व, अज्ञान आदि को बताया है, वे उसे नहीं जानते । ___ 'कहं नायंति संवरं'----संवर का आचरण करने की बात तो दूर, वह दुःख के निरोध (संवर) रूप विचार को भी नहीं पकड़ पाता । जो व्यक्ति दुःख की उत्पत्ति के कारण को नहीं जानता, तब उस दु:ख के निरोधरूप उपाय को वह कैसे जान सकता है ? यहाँ प्रश्न के रूप में शास्त्रकार याय करने की बात विचारक सम्यग्दृष्टि भव्यजीवों पर छोड़ देते हैं। आशय यह है कि अपने किये हुए अशुभ अनुष्ठान--दुष्कर्म से ही दुःख की उत्पत्ति होती है, किसी दूसरे से नहीं। इस स्वकर्मकृत दुःख-सुख-उत्पत्ति-व्यवस्था को पूर्वोक्त वादी नहीं जानते हुए ईश्वर आदि अन्य पदार्थ के द्वारा दुःख की उत्पत्ति मानते हैं। इस प्रकार दुःख की उत्पत्ति को मानने वाले अन्यमतवादी दुःखनाश के कारण (उपाय) को कैसे जान सकते हैं ? कारण के नाश से कार्य का नाश होता है। दुःख के कारण ईश्वर आदि नहीं, स्वयंकृत अशुभ कर्म हैं। उनके नाश या निरोध से ही दुःखोत्पत्तिरूप कार्य का नाश या निरोध हो सकता है। इस प्रकार दुःख के कारण को न जानकर वे दुःखनाश के लिए कैसे प्रयत्न कर सकेंगे। यदि ऊटपटांग प्रयत्न करें तो भी दु:ख का नाश नहीं कर सकेंगे, प्रत्युत जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि और इष्टवियोग-अनिष्ट संयोगरूप अनेक दुःखों से पीड़ित होते हुए वे अनन्तकाल तक अरहट की तरह संसारचक्र में परिभ्रमण करते रहेंगे। अब कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्त आत्मा को पुन: राग-द्रुप के कारण कर्मबन्धन में बद्ध मानने वाले राशिक कृतवादियों के मत का निरूपण करते हैं मूल पाठ सुद्धे अपावए आया, इहमेगेसिमाहियं । पुणो किड्डापदोसेणं सो तत्थ अवरज्भई ।।११।। संस्कृत छाया शुद्धोऽपापक आत्मा, इहैकेषामाख्यातम् । पुनः क्रीडाप्रदोषेण स तत्राऽपराध्यति ।।११।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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