SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1020
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन १७५ मूल पाठ जे धम्मं सुद्धमक्खंति, पडिपुन्नमणेलिसं अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कओ ?॥१६॥ संस्कृत छाया। ये धर्म शुद्ध माख्यान्ति, प्रतिपूर्ण मनी दृशम् । अनीदृशस्य यत्स्थानं, तस्य जन्म-कथा कुतः ।।१६।। अन्वयार्थ (जे) जो महापुरुष (पडिपुन्नमलिसं सुद्धधम्म अक्खंति) प्रतिपूर्ण, सर्वोत्तम, शुद्ध धर्म की व्याख्या करते हैं, (अणेलिसस्स जं ठाणं) वे सर्वोत्तम (अनुपम) स्थान को प्राप्त करते हैं । (तस्स जम्मकहा कओ) फिर उनके लिए जन्म लेने की तो बात ही कहाँ है ? __ भावार्थ जो पुरुष प्रतिपूर्ण, सर्वोत्तम और शुद्ध धर्म की व्याख्या करते हैं, और स्वयं आचरण करते हैं, वे सब दुःखों से रहित सर्वोत्तम पुरुष का जो स्थान है, उसको प्राप्त करते हैं, उनके लिए फिर जन्म लेने और मरने की बात भी नहीं है। व्याख्या परिपूर्ण अनुपम शुद्धधर्म के व्याख्याता : जन्म-मरणरहित धर्म का उपदेशक कैसे धर्म की व्याख्या करता है ? उसकी क्या स्थिति होती है ? इसे इस गाथा में शास्त्रकार ने बताया है। जो महापुरुष विशुद्ध अन्तःकरण वाले हैं, रागद्वषरहित हैं, केवलज्ञान सम्पन्न हैं, हस्तामलकवत् सारे जगत को देखते हैं, परहितरत रहते हैं, वे आयतचारित्र होने से धर्मपरिपूर्ण हैं, समस्त उपाधियों से वर्जित होने से शुद्ध हैं, या यथाख्यातचारित्ररूप हैं, एवं जो सबसे उत्तम है तथा सब से उत्कृष्ट है, उस धर्म का प्रतिपादन एवं आचरण करते हैं। ऐसे महापुरुष उस स्थान को प्राप्त कर लेते हैं, जो समस्त दुःख-द्वन्द्वों से रहित हैं और जो ऐसे अनुपम ज्ञानदर्शन-चारित्र-सम्पन्न महापुरुष को मिला करता है। जो इतनी उच्च भूमिका पर पहुँच जाते हैं, उनके लिए जन्म लेने की बात ही नहीं सोची जा सकती, जिसका जन्म ही नहीं होता, उसके मरण के बारे में तो स्वप्न में भी नहीं सोचा जा सकता, क्योंकि उनके कर्मबीज नष्ट हो चुके हैं, कहा भी है दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy