SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1015
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७० सूत्रकृतांग सूत्र मनुष्य सूअर, कबूतर आदि प्राणियों को फँसाने से लिए जंगल में जाल बिछा देते हैं और वहीं चावल आदि के दाने बिखेर देते हैं, वह प्राणी चावल आदि के दानों के लोभ में आकर उन दानों को खाने लगता है, और वहीं फंस जाता है । अर्थात् उसे बाँध दिया जाता है, और फिर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है । उन भोले जानवरों के लिए नीवार एक तरह से मौत का कारण है, वैसे ही स्त्रीप्रसंग भी अनेक बार जन्म, मरण तथा अन्य नाना प्रकार के दु:खों का कारण है, यह समझकर साधक उसमें बिलकुल नहीं फंसता । छिन्नसोए - जिसने आस्रवद्वारों या पाँचों इन्द्रियों के विषय-भोगों में प्रवृत्ति के द्वारों (संसारागमनद्वारों) को छिन्न-भिन्न कर दिया है, वह छिन्नस्रोत है । रागद्वेषरूपी मल से रहित होने से जो अनाविल है, अथवा जो अनाकुल है--विषयभोगों में प्रवृत्त न होने के कारण स्वस्थचित्त है। इन्द्रियों और मन पर सदा नियंत्रण रखता है । इस प्रकार के अनुपम गुणों से विशिष्ट महापुरुष ही अनुपम भावसन्धि-कर्मक्षयरूप मुक्ति प्राप्त कर लेता है। ___ अणेलिसस्स खेयन्ने --- मोक्षाभिमुख साधक के लिए यह महत्त्वपूर्ण गुण है कि वह अनीदृश यानी अनन्यसदृश (जिसके समान संसार में और कोई पदार्थ न हो) संयम या वीतरागप्रतिपादित धर्म का मर्मज्ञ होता है, अथवा खेदज्ञ का यह अर्थ भी प्रतीत होता है कि अनन्यसदृश धर्म या संयम पालन करने में साधक को कितनेकितने खेदों, परीषहों, उपसर्गों या आफतों का सामना करना पड़ता है, इसका जो ज्ञाता-अनुभवी हो। तथा ऐसा मोक्षाभिमुख साधक मन-वचन-काया से किसी भी प्राणी के साथ वैर-विरोध नहीं करता, अपितु सबके प्रति मैत्री-भावना, अभिन्नता, आत्मतुल्य भावना रखता है, करुणा, प्रमोद एवं माध्यस्थ भावना रखता है । आशय यह है कि ऐसा महान् साधक किसी के साथ अन्तःकरण से विरोध नहीं करता, किन्तु चित्त को शान्त एवं मैत्री आदि भावों से ओत-प्रोत रखता है । वचन से किसी के प्रति अपशब्द या कटुशब्द नहीं निकालता, अपितु हित, मित, प्रिय एवं सत्य बोलता है। शरीर से भी वह संयम विरोधी कोई चेष्टा नहीं करता। ऐसा मोक्षाभिमुख साधक ही वस्तुत: दिव्य विचारचक्ष से सम्पन्न है या परमार्थतत्त्वदर्शी है। वह सर्वोत्तम संयम या तीर्थंकरोक्त धर्म का मर्मज्ञ मोक्षाभिमुख साधक ही वास्तव में मनुष्यों का नेत्र है, अर्थात् नेता--पथप्रदर्शक है, बशर्ते कि वह शब्दादि समस्त विषयों की आकांक्षाओं का अन्त कर चुका हो, अथवा समस्त आकांक्षाओं के अन्त पर सिरे स्थित हो। विषयतृष्णा (या आकांक्षाओं) के अन्त-सिरे पर रहने वाला साधक कैसे अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि कर लेता है ? इसी को शास्त्रकार दो दृष्टान्तों द्वारा समझाते हैं---उस्तरा या छुरा अन्त (अग्र) भाग से ही काम करता है, रथ का पहिया भी अन्त (अन्तिम सिरे) से मार्ग पर चलता है। जैसे इन दोनों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy