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________________ भूमिका १८ भगवई समवायांग में जीव-अजीव, लोक-अलोक, स्वसमय-परसमय की समस्थिति का निरूपण है अथवा संक्षिप्त विमर्श है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में जीव-अजीव, लोक-अलोक, स्वसमय-परसमय की व्याख्या है। आचारांग में आत्मा और जीव की चर्चा आचार के प्रसंग में की गई है। वहां द्रव्यमीमांसा का स्वतन्त्र स्थान नहीं है। यद्यपि आचार-मीमांसा द्रव्यमीमांसा से जुड़ी हुई है। आचार को समझने के लिए द्रव्य को समझना आवश्यक है। दार्शनिक दृष्टि को स्थिर किए बिना आचार का सिद्धान्त प्रस्थापित नहीं हो सकता। प्रत्येक दार्शनिक पहले अपने दर्शन को स्थिर करता है फिर उसके आधार पर आचार का सिद्धान्त प्रस्थापित करता है। सूत्रकृतांग में भी द्रव्यमीमांसा प्रासंगिक है। उसका विस्तृत रूप व्याख्याप्रज्ञप्ति में ही मिलता है। दार्शनिक विकास की रूपरेखा इसके आधार पर निश्चित की जा सकती है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में लोक की व्याख्या पंचास्तिकाय के आधार पर की गई है। उत्तरवर्ती साहित्य में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को लोक और अलोक का विभाजक माना गया है, वैसा स्पष्ट उल्लेख व्याख्याप्रज्ञप्ति में उपलब्ध नहीं है। फिर भी इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भगवान् महावीर ने जीव और अजीव की प्ररूपणा से पहले लोक और अलोक की प्ररूपणा की है। मालवणियाजी सूत्रकृतांग की जिस सूचि को सात पदार्थ या नव तत्त्व का आधार मानते हैं उस सूची में सबसे पहले लोक और अलोक का, उसके पश्चात् जीव और अजीव का उल्लेख है।' लोक और अलोक के विभाग का आधार धर्मास्तिकाय है। आकाश दो प्रकार का है—लोकाकाश और अलोकाकाश ।' धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय-ये पांचों लोकप्रमाण हैं जितने आकाश में ये व्याप्त हैं उतना ही लोक है, जहाँ ये नहीं हैं वह अलोक है। लोकस्थिति का सिद्धान्त है जहाँ तक लोक है वहाँ तक जीव है और जहाँ तक जीव है वहाँ तक लोक है यह लोकस्थति का आठवां प्रकार है। जहाँ तक जीवों और पुद्गलों का गतिपर्याय है वहाँ तक लोक है और जहाँ तक लोक है वहां तक जीवों और पुद्गलों का गतिपर्याय है-यह लोकस्थिति का नौवां प्रकार है। सभी लोकान्तों के पुद्गल दूसरे रूक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्धपार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध और अस्पृष्ट) होने पर भी लोकान्त के स्वभाव से रूक्ष हो जाते हैं। जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते—यह लोकस्थिति का दसवां प्रकार है।" यह सही है कि अलोक में जीव और पुद्गल नहीं हैं और लोकान्त के सभी भागों में रूक्ष पुद्गल हैं, इसलिए गति नहीं होती। मुक्त आत्मा की गति लोकान्त तक ही क्यों होती है, आगे अलोक में क्यों नहीं होती ? वह गति पुद्गल-परमाणु के योग से नहीं होती, इसलिए अलोक में जीव नहीं है, अजीव नहीं है यह नियम भी बाधक नहीं बन सकता। लोकांत के परमाणु रूक्ष हैं, यह नियम भी उसमें बाधक नहीं बन सकता। मुक्त आत्मा की गति अलोक में नहीं होती, इसका नियामक तत्त्व धर्मास्तिकाय ही हो सकता है। जहाँ तक गति का माध्यम है वहाँ तक अर्थात् लोकान्त तक मुक्त आत्मा चली जाती है, उससे आगे अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है इसलिए वह वहाँ नहीं जा सकती। नव तत्त्व से पूर्व लोक और अलोक का उल्लेख प्राप्त है तथा नवतत्त्व की व्यवस्था में मोक्ष तत्त्व का समावेश है। इन दोनों आधारों पर इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन नहीं है कि नवतत्त्व की व्यवस्था पंचास्तिकाय की अवधारणा के साथ जुड़ी हुई है। षड् द्रव्य पंचास्तिकाय का विकसित रूप है। पंचास्तिकाय में काल सम्मिलित नहीं है, क्योंकि वह अस्तिकाय नहीं है। वह एक द्रव्य है, इसलिए षड् द्रव्य में परिगणित है। यह बहुत संभव है कि जैनदर्शन में द्रव्य के अर्थ में अस्तिकाय का प्रयोग प्राचीन है और द्रव्य का प्रयोग उसके बाद का है, इसलिए पंचास्तिकाय का सिद्धान्त लोक-अलोक, जीव-अजीव और मोक्ष के सिद्धान्त के साथ ही स्थापित हुआ था। लोक की परिभाषा पंचास्तिकाय के आधार पर की गई है। प्रश्न पूछा गया-लोक क्या है ? इसका उत्तर मिला---पंचास्तिकाय लोक है। पांचों अस्तिकाय क्षेत्र की दृष्टि से लोकप्रमाण मात्र होते हैं। धर्मास्तिकाय में गति होती है, वह गति का प्रेरक नहीं। आगमन-गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग, काययोग–ये जितने चल या गतिशील भाव हैं, वे सब धर्मास्तिकाय में गति करते हैं। सूत्र में 'धम्मत्थिकाय' का निर्देश है। इसका अर्थ है-धर्मास्तिकाय में गति होती है, धर्मास्तिकाय के द्वारा गति नहीं होती। जीव शरीर, इन्द्रिय, मनयोग, वचनयोग, काययोग और आनापान के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा वे गतिशील बनते हैं। धर्मास्तिकाय के होने पर भी पुद्गल के सहयोग के बिना जीव की गति नहीं होती। अलोक मे पुद्गल नहीं है, इसलिए वहां जीव नहीं जा सकते। अलोक में जीव की गति नहीं होती, इसमें मुख्य कारण वहाँ पुद्गल का अभाव है और गौण कारण है----धर्मास्तिकाय का अभाव । इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि धर्मास्तिकाय की कल्पना स्थिर हो गई होती तो ऐसा उत्तर नहीं मिलता। स्थानांग में बतलाया गया है-चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक से बाहर नहीं जा सकते। उनमें धर्मास्तिकाय के अभाव १. नंदी,सू.८४;सम.प.सू.६२। २. नंदी,सू.८५,सम.प.सू.८३। ३. सूय.२१५/१२,१३| ४. भ.२।१३८॥ ५. वही,२/१४१-१४५ ६. ठाणं,१०1१। ७. भ.१३ । ५५ ५. वही,२।१२४-१२६२।१४१-१४५ | ६. वही,१३।५६,६०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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