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________________ सूयगडो १ अध्ययन १५ टिप्पण ४१-४३ वृत्तिकार ने इसका सर्वथा भिन्न अर्थ किया है । उन्होंने 'उत्तरीए' का संबंध 'देवा' से न मानकर स्वतंत्र रखा है। उनके अनुसार भी इसके दो अर्थ हैं १. लोकोत्तर प्रवचन । २. लोकोत्तर भगवान् महावीर । प्रसंग की दृष्टि से इसका संबंध 'देवा' शब्द से है और इसका अर्थ होना चाहिए-वैमानिक देव । दृत्तिकार ने यह अर्थ 'देवा' शब्द की व्याख्या में भी दिया है।' ४१. (णिट्टितट्ठा......सुतं) प्रस्तुत श्लोक (१६) के प्रथम दो चरणों की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है१. आयं सुधर्मा ने जंबू से कहा- कुछ मनुष्य धर्म की आराधना कर मुक्त हो जाते हैं या वैमानिक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं-यह मैंने तीर्थंकर से सुना है। २. आर्य सुधर्मा ने जंबू से कहा- कुछ मनुष्य धर्म की आराधना कर मुक्त हो जाते हैं या इंद्र, सामानिक, वायस्त्रिशक आदि ऊंचे पद पर देव होते हैं- यह मैंने तीर्थंकर से सुना है।' ३. लोकोत्तरीय प्रवचन में आगमभूत सुधर्मा ने जंबू से कहा-मैंने लोकोत्तरीय भगवान् से यह बोध प्राप्त किया है कि धर्म की आराधना कर कुछ मनुष्य सिद्ध हो जाते हैं और कुछ वैमानिक देव ।' ४२. श्लोक १६ बौद्ध-मत के अनुसार राग तीन प्रकार का होता है-कामराग, रूपराग और अरूपराग । जो इन तीनों का सर्वथा नाश कर देता है वह अर्हत् पद प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हो जाता है। जो साधक केवल कामराग को ही नष्ट कर पाता है, उसके रागांश शेष रह जाता है। वह यहां से मरकर देवगति में जाता है। यहां से च्युत होकर वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है, पुनः मनुष्यभव में नहीं आता। वे देव 'अनागामी' कहलाते हैं।' सत्रकार ने इस मत का खंडन 'णो तहा' इन दो शब्दों से किया है। उनका प्रतिपाद्य है-देव (या अन्य गति वाले प्राणी) मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते, मनुष्य ही निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने भी बौद्ध मान्यता को उद्धृत करते हुए उसका खंडन किया है।' श्लोक १७: ४३. श्लोक १७: प्रस्तुत श्लोक में पूर्ववर्ती श्लोक में प्रतिपादित सिद्धान्त की पुष्टि की गई है। मनुष्य जीवन में ही निर्वाण हो सकता है, दुःखों या कर्मों का अन्त हो सकता है। यह तीर्थंकर-सम्मत सिद्धान्त है । चूणिकार ने लिखा है-इस सिद्धान्त को सब दार्शनिक स्वीकार नहीं करते । कुछ दार्शनिक अर्थात् हम इसे स्वीकार करते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य शरीर दुर्लभ है। इस शरीर में जैसा १वृत्ति, पत्र २६७ : ..." एतल्लोकोत्तरीये प्रवचने.... लोकोत्तरीये भगवत्यहति । २. वृत्ति, पत्र २६७ । ३. चूणि, पृ० २४२ : .. . अज्जसुहम्मो जंबु भणति-इति मया सुयं तित्थगरसगासातो, न स्वेच्छयोच्यते। ४. वृत्ति, पत्र २६७ : लोकोत्तरीये प्रवचने श्रुतम्-आगमः एवंभूतः सुधर्मस्वामी वा जम्बूस्वामिनमुद्दिश्यैवमाह-यथा मयतल्लोकोत्त रीये भगवत्यहत्युपलब्धं, तद्यथा-अवाप्तसम्यक्त्वादिसामग्रीक: सिध्यति वैमानिको वा भवतीति । ५. अंगुत्तरनिकाय २/२१५, अभिधम्मत्थसंगहो, नवनीत टीका, पृ० १७७ : अनागामिमग्गं भावेत्वा कामरागव्यापारनं अनवसेसप्पहानेन अनागामी नाम होति, अवगन्ता इत्थतं । ६. (क) चूणि, पृ० २४२ : शाक्या वा अवन्ति–'अनागामिनो देवा भवन्ति, ते हि देवा नान्तं (? देवा अनागत्यान्त) कृर्वन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र २६७ । एतेन यच्छाक्यरमिहितं, तद्यथा--देव एवाशेषकर्मप्रहाणं कृत्वा मोक्षमाग्भवति, तदपारतं भवति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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