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________________ आमुख इस अध्ययन का नाम 'यमकीय' है । समवायांग में भी यही नाम निर्दिष्ट है। इसके सभी श्लोक 'यमक' अलंकार से युक्त हैं। प्रथम श्लोक के अन्तिम चरण और दूसरे श्लोक के प्रथम चरण में 'यमक' है। जैसे--दूसरे श्लोक के अन्तिम शब्द हैं.---'तहितहिं' और तीसरे के प्रथम शब्द हैं 'तहिं तहि' । सर्वत्र शब्द-साम्य या भाव-साम्य है । 'यमक' में निबद्ध होने के कारण इसे 'यमकीय' कहा गया है। चूर्णिकार ने इसके दो नाम बताए हैं-आदानीय और संकलिका ।' वृत्तिकार ने मुख्य नाम आदानीय और विकल्परूप में यमकीय' (प्रा० जमतीयं) और संकलिका'-ये दो नाम माने हैं । इस प्रकार इस अध्ययन के तीन नाम हो जाते हैं -- आदानीय, यमकीय और संकलिका। वृत्तिकार ने 'आदानीय' और 'संकलिका' नामकरण को सार्थकता इस प्रकार बतलाई है मुमुक्षु व्यक्ति अपने समस्त कर्मों को क्षीण करने के लिए जिन ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आदान (ग्रहण) करता है, उनका इस अध्ययन में प्रतिपादन है, इसलिए इसे 'आदानीय' नाम से सम्बोधित किया गया है।" संकलिका के दो प्रकार हैं१. द्रव्य संकलिका-सांकल आदि। २. भाव संकलिका-जिसमें उत्तरोत्तर विशिष्ट अध्यवसायों का संकलन होता है । इस अध्ययन के श्लोकों के अन्त-आदि पद में एक प्रकार की संकलना (संकलिका) है। उसके आधार पर इसे 'संकलिका' कहा गया है। प्रस्तुत अध्ययन में एक शृंखला (संकलिका) का प्रयोग है। इसमें तीन प्रकार की शृंखला है-१. सूत्र शृंखला, २. अर्थ शृंखला और ३. तदुभय (सूत्र-अर्थ) शृंखला।' चूर्णिकार ने दूसरे श्लोक में सूत्र संकलिका और अर्थ संकलिका-दोनों माना है तथा पन्द्रहवें श्लोक में केवल अर्थ संकलिका माना है। शेष श्लोक संभवतः सूत्र-संकलिका के हैं । १. चूणि, पृ०२३८ : आवाणिज्जं ति वा संकलितम्झयणं ति वा । २. वृत्ति, पत्र २५६ : अथवा जमतीयं ति अस्याध्ययनस्य नाम । ३. वृत्ति, पत्र २६० : केचित् तु पुनरस्याध्ययनस्यान्ताविपदयोः संकलनात् संकलिकेति नाम कुर्वते। ४. वृत्ति, पत्र २६०। ५. वृत्ति, पत्र २६० : आद्यन्त (अन्तादि ?) पदयोः संकलनादिति । ६. चूणि, पृ० २३८ : कहिंचि सुत्तेण संकला भवति, कहिंचि अत्थेण, कहिचि उभयेण वि । ७. चूणि, पृ० २३६ : अत्रोभयेनापि संकलिका। ८. चूर्णि, पृ० २४१ : इयमर्थसंकलिका-अंताणि धीरा सेवंति। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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