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________________ सूयगडो १ ५३६ अध्ययन १३: टिप्पण ३१-३४ आत्मोत्कर्ष दिखाता है। ३१. मैं सबसे बड़ा तपस्वी हूं (तवेण वा.....) 'मैं सबसे बड़ा तपस्वी हूं' ऐसा मान कर वह दूसरे साधुओं को कहता है-तुम सब ओदनमुंड हो-रोटी के लिए साधु बने हो । तुम में से कौन है मेरे जैसी तपस्या करने वाला ?' ३२. (अण्णं जणं पस्सति बिबभूतं) वैसा आत्मोत्कर्षी दूसरों को केवल बिबभूत-मनुष्य आकृति मात्र मानता है। उनमें प्राप्त विज्ञान आदि मानवीय गुणों को नहीं देखता।' चूर्णिकार ने 'बिंबभूतं' के स्थान पर 'चिंधभूतं' पाठान्तर का उल्लेख कर उसका अर्थ इस प्रकार किया है-वह आत्माभिमानी व्यक्ति दूसरों को जल में प्रतिबिंबित चन्द्रमा या नकली सिक्के की भांति अर्थशून्य मानता है। वह केवल उन्हें लिंगमात्र को धारण करने वाला मानता है। उनमें श्रमणगुणों को नहीं मानता।' वृत्तिकार ने 'बिंबभूत' का यही अर्थ किया है। श्लोक ६ : ३३. माया के द्वारा (कूडेण) ___ 'कूट' शब्द के अनेक अर्थ हैं-माया, झूठ, यथार्थ का अपलाप, धोखा, चालाकी, अन्त, समूह, मृग को पकड़ने का यंत्र, आदि-आदि। वृत्तिकार ने इसका अर्थ--मृग को बांधने का पाश किया है।' प्रस्तुत श्लोक में इसका अर्थ 'माया' ही उचित लगता है । क्योंकि पूर्व श्लोक में मुनि किस प्रकार माया कर अपनी यथार्थता को छिपाकर लोगों को धोखा देता है, उसका स्पष्ट उल्लेख है। ३४. संसार में भ्रमण करता है (पलेइ) वह जन्म-कुटिल संसार में बार-बार प्रलीन होता है, अनेक बार जन्म-मरण करता हैं।' १.णि, पृ० २२२ : संखाए त्ति एवं गणयित्वा, अथवा संख्या इति ज्ञानम्, ज्ञानवन्तमात्मानं मत्वा । वदनं वादः, कि वदति ? कोऽ- . न्यो मयाऽद्यकाले संयमे सदृशः सामाचारीए वा? । अपरिक्ख णाम अपरीक्ष्य भणति रोस-पडिणिवेस-अकयण्ण त्ताए वा, अथवा मानदोषादपरीक्ष्य ववति । २. (क) चूणि, पृ० २२२ : षष्ठादीनां तपसां कोऽन्यो मया सदशो भवतामोदनमुण्डानाम् ? (ख) वृत्ति, पत्र २४१ : तपसा-द्वादशभेवभिन्नेनाहमेवात्र सहितो-युक्तो न मत्तुल्यो विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहोऽस्तीत्येवंमत्वाऽऽ मोत्कर्षाभिमानीति । ३. चूर्णि, पृ० २२२ : बिबभूतमिति मनुष्याकृतिमात्रम्, द्रव्यमेव च केवलं पश्यति न तु विज्ञानाविमनुष्यगुणानन्यत्र प्रतिमन्यते । ४. वही, पृष्ठ २२२ : अथवा-"चिध [भूत] मिति" लिङ्गमात्रमेवान्यत्र पश्यति, न तु श्रमणगुणान् उदकचन्द्रकवत् कूटकार्षापणवच्चे त्यादि। ५ वृत्ति, पत्र २४१ : अन्यं जन-साधुलोकं गृहस्थलोकं वा, "बिम्बभूतं' जलचन्द्रवत्तदर्थशून्यं कूटकार्षापणवद्वा लिङ्गमात्रधारिणं पुरुषाकृतिमात्रं वा 'पश्यति'--अवमन्यते । ६. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी-'कुट' शब्द ।' ७. वृत्ति, पन २४१ : कूटवस्कूटं यथा कूटेन मृगादिबंद्धः । ८ (क) चूणि, पृ० २२२ : संयमातो पलेऊण पुनर्जन्मकुटिले संसारे पुनः पुनीयन्ते प्रलीयन्ते। (ख) वृत्ति, पत्र २४१ : असौ संसारचक्रवालं पय ति, तत्र वा प्रकर्षेण लीयते प्रलीयते अनेकप्रकारं संसारं बंभ्रमीति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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