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________________ आमुख आदानपद के आधार पर इस अध्ययन का नाम 'याथातथ्य' है । इस अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य है --शिष्य के दोष और गुणों का यथार्थ चित्रण करना । नियुक्तिकार ने बताया है कि यथातथ धर्म को उपलब्ध होकर भी आत्मोत्कर्ष करने वाला विनष्ट हो जाता है । इसलिए आत्मोत्कर्ष का वर्जन करना चाहिए।' प्रस्तुत अध्ययन के दूसरे श्लोक से नियुक्तिकार के उक्त आशय की पुष्टि होती है । याथातथ्य का अर्थ है- यथार्थ, परमार्थ, सत्य । शील, व्रत, इन्द्रिय संवर, समिति, गुप्ति, कषाय- निग्रह, त्याग आदि परमार्थ हैं, यथार्थ हैं, सत्य हैं ।' प्रस्तुत अध्ययन के तेवीस श्लोकों में निर्वाण के साधक-बाधक तत्त्वों, शिष्य के दोष गुणों तथा अनेक मद स्थानों का वर्णन है। सूत्रकार ने शिष्य के निम्न गुण-दोषों का उल्लेख किया है गुण आचार्य की आज्ञा मानना आगम की आज्ञा मानना संयम का पालन करना एकान्तदृष्टि सम्यग्दृष्टि होना माया रहित व्यवहार करना मृदु और मित बोलना जैसे कहे वैसे करना अनुशासित होने पर मध्यस्थ रहना कलह से दूर रहना मद स्थानों का सेवन नहीं करना जाति-कुल, गण, कर्म और शिल्प का प्रदर्शन कर आजीविका नहीं कमाना सरप भाषी, प्रणिधानवान्, विशारद, आगाढप्रज्ञ, भावितात्मा प्रतिभावान् होना । दोष मोक्ष समाधि का अप्रतिपालन आचार्य का अवर्णवाद कहना १. नियुक्ति, गाथा ११८, ११६ । २. चूर्ण, पृ० २१९ ॥ स्वच्छन्द व्याकरण करना अनाचार का सेवन करना असत्य वचन कहना विद्या गुरु का अपलाप करन असाधु होकर स्वयं को साधु मानना मायाचार का सेवन करना क्रोध करना सूत्रकार ने सात श्लोकों (१०-१६) में मद स्थानों और उनके परिहार के उपाय सूत्र बतलाए हैं- गोत्रमद, प्रज्ञामद, जातिमद, कुलमद, लाभमद, तपोमद, आजीविकामद-ये मदस्थान हैं । इनके परिहार के लिए कुछ उपाय सूत्र बतलाए गए हैं-संयम और मोक्ष अगोत्र होते हैं, जाति और कुल त्राण नहीं देते, भिक्षु सुधीर होता है, मृतार्चा होता है, दृष्टधर्मा होता है । Jain Education International पापकारी भाषा बोलना उपशान्त कलह की उदीरणा करना विग्रह करना प्रतिकूल भाषा बोलना अपने आपको उत्कृष्ट संयमी समझना । अंतिम पांच श्लोकों (१९-२३) में धर्मकथी के स्वरूप का विमर्श किया गया है। यह माना जाता है कि मुनि बनने मात्र से ही किसी को धर्मकथा करने का अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता । आचारांग आदि आगमों में धर्मदेशना देने का अधिकारी कौन हो सकता है, इसका स्पष्ट निरूपण है । प्रस्तुत श्लोकों में बताया गया है कि धर्मकथी मुनि दो प्रकार के होते हैं १. अतीन्द्रियज्ञान से संपन्न । २. परोक्षज्ञानी - प्रत्यक्षज्ञानी से सुने हुए या समझे हुए तथ्य का प्रतिपादन करने वाले । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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