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________________ सूयगडो १ ५०१ अध्ययन १२ : टिप्पण ८-१० अभिमत है। वृत्तिकार ने पूरे श्लोक को विनयवादी मत का प्रतिपादक माना है। यह भ्रांति है। ८. (सच्चं असच्चं............."उदाहरंता) चूर्णिकार ने इन दो चरणों का अर्थ इस प्रकार किया हैअज्ञानवादी ऐसा चिन्तन करते हैं कि सत्य भी कभी-कभी असत्य हो जाता है, इसलिए सत्य भी नहीं कहना चाहिए । साधु को देखकर भी उसे साधु न कहा जाए। कभी वह साधु हो सकता है और कभी असाधु हो सकता है। चोर कभी चोर हो सकता है और कभी अ-चोर हो सकता है। वेष के आधार पर स्त्री को स्त्री न कहा जाए। वह स्त्री भी हो सकती है, पुरुष भी हो सकता है । इसी प्रकार पुरुष पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी हो सकता है । इस प्रकार सभी विषयों में अभिशंकित होने के कारण उनके दर्शन के लिए असम्यग्दर्शन सम्यग् और सम्यग्दर्शन असम्यग् बन जाता है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-वे (विनयवादी) सत्य को असत्य और असत्य को सत्य तथा असाधु को साधु मानते हैं।' चूर्णिकार और वृत्तिकार ने जो अर्थ किए हैं वे मूल से बहुत दूर जा पड़ते हैं। यथार्थ में अज्ञानवादी प्रत्येक विषय में अभिशंकित होते हैं । वे किसी भी तथ्य का निश्चय नहीं कर पाते । प्रस्तुत दो चरणों में यही स्पष्ट किया गया है। परलोक, स्वर्ग, नरक सत्य हैं या असत्य हैं-ऐसा पूछने पर वे कहते हैं हम नहीं जानते। वे यह नहीं कह सकते कि यह अच्छा है यह बुरा है। (विशेष विवरण के लिए देखें ११४१ का टिप्पण)। ६. विनय को ही यथार्थ बतलाते हैं (भावं विणइंसु) भाव का अर्थ है --- यथार्थ का उपलंभ । विनयवादी विनय को ही यथार्थ मानते हैं। कोई व्यक्ति उनसे पूछता है-तुम्हारा धर्म कैसा है ? वे कहते हैं-हमारा यह विनयमूल धर्म परिगणना, परीक्षा और मीमांसा करता रहता है। हम विनय धर्म की प्ररूपणा करते हैं। हम सबको अविरोधी मानते हैं--मित्र और अरि को सम मानते हैं। हम समस्त प्रव्रजित व्यक्तियों तथा देवों को प्रणाम करते हैं। जैसे दूसरे मतावलंबी परस्पर विरोध रखते हैं, हम वैसा नहीं करते। हम प्रव्रजित होते ही, इन्द्र हो या स्कन्द, जब ऊंचे को देखते हैं तो ऊंचा प्रणाम करते हैं, नीचे को देखते हैं तो नीचा प्रणाम करते हैं। जो स्थान या ऐश्वर्य से ऊंचा है, जैसे राजा, सेठ आदि उनको देखते ही हम ऊंचा प्रणाम करते हैं और जो क्षुद्र प्राणी हैं, जैसे कुत्ता आदि, उनको नीचा प्रणाम करते हैं । हम भूमि पर शिर रख कर नमन करते हैं।' श्लोक ४: १०. अज्ञानवश (अणोवसंखा) इसका संस्कृत रूप है-अनुपसंख्यया । संख्या का अर्थ है---ज्ञान, 'उप' का अर्थ है-समीप । उपसंख्या अर्थात् ज्ञान के समीप । न उपसंख्या-अनुपसंख्या अर्थात अज्ञान।" १. चूणि, पृ० २०८ : सच्चं मोसं . . . . . 'वुत्ता अण्णाणिया । इदाणी वेणइयवादी-जेमे जणा वेणइया.... । २. वृत्ति, पत्र २१८ : साम्प्रतं वैनयिकवादं निराचिकीर्षुः प्रक्रमते-'सच्चं असच्चं'। ३. चूणि, पृ० २०८ । ४. वत्ति, पत्र २१८ । ५. चूणि, पृ० २०८। ६. चूर्णि, पृ० २०९ : संखा इति णाणं, संखाए समोवे उपसंखा, ण उपसंखा अणोपसंखा अज्ञानं इत्यर्थः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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