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________________ सूयगडो १ ૪&# अध्ययन १२ : टिप्पण १ ( Ex७ ) = ६३ हुए । तथा सत् भावोत्पत्ति को कौन जानता है ? उसके जानने से क्या लाभ ? असत् भावोत्पत्ति को कौन जानता है ? उसके जानने से क्या लाभ ? ये चार भंग मिलाने पर कुल ६७ भेद होते हैं । ' चूर्णिकार ने मृगचारिका की चर्या करने वाले, अटवी में रहकर पुष्प और फल खाने वाले त्यागशून्य संन्यासियों को अज्ञानवादी कहा है ।" आचार्य अकलंक ने अज्ञानवादियों के कुछ आचार्यों का उल्लेख किया है-साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, काठ, माध्यन्दिनी, मौद, पैप्पल्लाद, बादरायण आदि । अज्ञानवाद का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र के १।१।४१ - ५०; १।६।२७; १।१२।२, ३; में मिलता है । अज्ञानवाद की विचारधारा की ओर मनुष्यों का झुकाव कई कारणों से हुआ था १. मनुष्य जानता है । अच्छे को अच्छा जानता और बुरे को बुरा जानता है। फिर भी अच्छाई को स्वीकार और बुराई को अस्वीकार नहीं कर पाता। इस प्रकार की मनोवृत्ति ने मनुष्य के मन में एक निराशा का भाव उत्पन्न किया कि जानने से क्या लाभ ? जान लेने पर भी बुराई नहीं छूटती और अच्छाई पर नहीं चला जाता फिर उस ज्ञान की क्या सार्थकता ? इस प्रकार की मनोवृत्ति ने अज्ञानवाद को जन्म दिया । २. कुछ लोग सोचते थे कि सत्य वही है जो इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध है । अतीन्द्रिय सत्य के बारे में बहुत चर्चा होती है, किन्तु उसका साक्षात् करने वाला कोई नहीं है। यदि कोई हो भी तो हमें क्या पता कि वह है या नहीं ? हम केवल उसकी कही हुई बात को सुनते हैं या मानते हैं। उसने अतीन्द्रिय विषय का साक्षात् किया हो-यह भी हम नहीं जान सकते और साक्षात् न किया हो - यह भी हम नहीं जान सकते । इसलिए अतीन्द्रियज्ञान की बात व्यर्थ है । इस चिन्तनधारा के अनुसार अज्ञानवाद का अर्थ होता है - अतीन्द्रिय विषयों को जानने का अप्रयत्न । अतीन्द्रिय विषयों के बारे में उलझने में इस विचारधारा के लोग सार्थकता का अनुभव नहीं करते थे इन्द्रियगम्य सत्य के द्वारा ही जीवन की समस्याओं को सुलझाने और दुखों से मुक्ति पाने का प्रयत्न करते हैं। ३. कुछ लोग वर्तमान जन्म में उपलब्ध विषयों से विरत होकर अदृष्ट पुनर्जन्म की खोज करने को यथार्थं नहीं मानते थे । प्राप्त को त्याग कर अप्राप्त के प्रति दौड़ना उन्हें बुद्धिमत्ता प्रतीत नहीं होती थी। उन्होंने जीवन के अतीत और भावी —- दोनों पक्षों को छोड़कर केवल वर्तमान जीवन की समीक्षा करना ही पसन्द किया। उन्होंने वर्तमान जीवन के लिए इन्द्रियज्ञान को पर्याप्त समझ कर अतीन्द्रियज्ञान की उपेक्षा की और तद् विषयक अज्ञानवाद का समर्थन किया । जयधवला में अज्ञानवाद के पश्चात् और विनयवाद के पूर्व 'ज्ञानवाद' का उल्लेख मिलता है। * ज्ञानवादी ज्ञान का ही समर्थन करते थे । विनयवाद की भूमिका के रूप में इसका उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । ४. विनयवाद विनयवाद का मूल आधार विनय है ।" चूर्णिकार के अनुसार विनयवादियों का अभिमत है कि किसी भी संप्रदाय या गृहस्थ १. चूर्णि, पृ० २०६ : अज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन् सदाविसप्तविधान् । भावोत्पत्ति सबसन्तको बेति ? ६७ ॥ इमे दिद्विविधाण - सन् जीव को वेत्ति ? "एवमेते सत्त णवगा तिसट्ठी ६३, इमेहि संजुत्ता सत्तसट्ठी ६७ हवंति, तं जधा - सती भावोत्पत्ति को वेत्ति ? किं वा ताए जाताए ? १ असती भावोत्पत्ति को वेत्ति ? कि श ताए जाताए ? २ सदसती भावोत्पत्ति को वेत्ति ? किं वा ताए जाताए ? ३ अवचनीया भावोत्पत्ति को वेत्ति ? कि वा ताए जाताए ? ४ । उक्ता अज्ञानिकाः । २ पूर्ण १० २०७ ते तु भगवारियादयो अडीए पुष्क- फलभयो बच्चादि अन्याणिया । ३. तत्त्वार्थवार्तिक ८१, भाग २ पृष्ठ ५६२ : साकल्यवाष्कलकुथु मिसात्यमु ग्रिनारायण काठमाध्यन्दिनीमोदप्पप्पलादबादरायणस्विष्ठिकृतिकायनमिनिप्रभृतिदित्संख्या अज्ञानवादा या ४. कसायपाहुड, भाग १, पृष्ठ १३४ : किरियावादं अकिरियावादं अण्णाणवादं णाणवादं वेणइयवाद ५. सूत्रांग निर्मुक्ति गाया १११- विगतवारी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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