SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूयगडो १ ४७५ १. जितेन्द्रिय । २. आत्मा । ३. मोक्ष मार्ग (ज्ञान-दर्शन- चारित्र) की अनुपालना में समर्थ । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं'-- १. जितेन्द्रिय । २. संयम के आवारक कर्मों को तोड़कर मोक्ष मार्ग का पालन करने में समर्थ । २०. दोषों ( क्रोध आदि) का ( दोसे) चूर्णिकार ने क्रोध आदि को दोष माना है और वृत्तिकार ने पांच आस्रव द्वारों - मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को दोष माना है।' प्रकरण के अनुसार 'दोष' का अर्थ द्वेष प्रतीत होता है । मनुष्य द्वेष के कारण दूसरों के साथ विरोध करता है । इसीलिए बतलाया गया है कि द्वेष का निराकरण कर किसी के साथ विरोध न करे । २१. निराकरण कर (निराकिन्या) अध्ययन ११ टिप्पण २०-२४ चूर्णिकार ने 'णिरे किच्चा' पाठ की व्याख्या की है। 'णिरे' अव्यय है । इसका अर्थ है- पीठ पीछे ।" श्लोक १३ : २२. संवृत (संवडे) संवृत का अर्थ है - प्राणातिपात आदि आस्रवों को रोकने वाला अथवा इन्द्रिय और मन का संवरण करने वाला ।" २३. एषणा समिति से युक्त (एसणासमिए) Jain Education International एसणा के तीन प्रकार हैं १ गवेषणा - भिक्षा की खोज में निकलकर मुनि आहार के कल्प्य अकल्प्य के निर्णय के लिए जिन नियमों का पालन करता है अथवा जिन दोषों से बचता है उसे गवेषणा कहते हैं । २. ग्रहणैषणा - आहार को ग्रहण करते समय जिन नियमों का पालन करना होता है, उसे ग्रहणषणा कहते हैं । ३. प्रासंषणा या परिभोगंषणा प्राप्त आहार को खाते समय जिन नियमों का पालन किया जाता है, वह है ग्रासपणा या परिभोगषणा । श्लोक १४ : २४. जीवों का (नुयाई) भूत का अर्थ है- प्राणी जो प्राणी अतीत में वे वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे, वे भूत कहलाते हैं-यह टीकाकार का अभिमत है । " १. वृत्ति, पत्र २०४ : इन्द्रियाणां प्रभवतीति प्रभुर्वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, यदि वा संयमावारकाणि कर्माण्यभिभूय मोक्षमार्गे पालयितव्ये प्रभुः —समर्थः । २. णि, पृ० १६८ : दोषाः क्रोधादयः । ३. वृत्ति पत्र २०४ दूषयन्तोति दोषामिच्यात्याविरतिप्रमादकषाययोगास्तान् । ४. चूर्ण, पृ० ११८ : निरे इति पृष्ठतः कृत्वा । ५. णि. पृ० ११८ हिसाद्याचयसंयुतः इंडिय-गोदियाबुद्ध था। ६. वृत्ति, पत्र २०४ : अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि भूतानि - प्राणिनः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy