SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ४०२ अध्ययन :: टिप्पण ४४-४६ श्लोक १४: ४४. साधु के उद्देश्य से बनाए गए (उद्देसियं) निर्ग्रन्थ को दान देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन आदि को औद्देशिक कहते हैं। यह भिक्षु के लिए अनाचीर्ण है- अग्राह्य और असेव्य है। देखें- दशवकालिक ३/२ 'उद्देसियं' का टिप्पण । ४५. (साधु के उद्देश्य से) खरीदे गए (कीयगडं) इसके दो अर्थ प्राप्त हैं१. खरीद कर दी गई वस्तु ।' २. खरीदी हुई वस्तु से बनी हुई वस्तु ।' देखें--दशवकालिक ३/२ कियगडं' का टिप्पण । ४६. (साधु के उद्देश्य से) उधार लिए गए (पामिच्चं) साधु के लिए दूसरों से उधार लेना 'प्रामित्य' कहलाता है। यह उद्गम का नौवां दोष है । देखें-दशवकालिक ५/१/५५ 'पामिच्च' का टिप्पण। ४७. (साधु के उद्देश्य से) दूर से लाए गए (आहडं) आहृत का अर्थ है-साधु को देने के लिए गृहस्थ द्वारा अभिमुख लाई गई वस्तु । पिंडनियुक्ति और निशीथ भाष्य में इसके अनेक प्रकार निर्दिष्ट हैं। देखें-दशवकालिक ३/२ 'अभिहडाणि' का टिप्पण । ४८. पूति (पूर्ति) जो आहार साधु के निमित्त बनाया जाता है, उसे आधाकर्म कहते हैं। उससे मिश्रित जो आहार आदि होता है, वह पूतिकर्म कहलाता है। देखें-दशवकालिक ५/१/५५ 'पूईकम्म' का टिप्पण । श्लोक १५: ४६. वीर्यवर्द्धक आहार या रसायन (आसूणि) 'टवोश्वि गतिवृद्धयोः'- इस धातु का क्त प्रत्ययान्त रूप है 'शूनः'। इस धातु के दो अर्थ हैं-गति और वृद्धि । प्रस्तुत प्रसंग में यह वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त है। 'आसूणि' का संस्कृत रूप है 'आशूनि' । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसके तीन-तीन अर्थ किए हैं१. आशूनि का अर्थ है—श्लाघा । व्यक्ति दूसरों द्वारा प्रशंसित होता हुआ स्तब्ध हो जाता है। जब तक वह प्रशंसित होता है अथवा जब तक दूसरे व्यक्ति उसका अनुसरण करते हैं तब तक वह मान से स्तब्ध होता है । वह तुच्छ प्रकृति वाला मनुष्य अपनी प्रशंसा सुनकर मान से फूल जाता है । २. जिस आहार के द्वारा व्यक्ति बलवान होता है, बल की वृद्धि होती है, वह आशूनि कहलाता है। १. वृत्ति, पत्र १८०। क्रीतं ऋयस्तेन क्रीतं-गृहीतं क्रीतक्रीतम् । २. दशवकालिक ३२, हरिभद्रीया वृत्ति पत्र ११६ : क्रयणं-क्रोतं, भवे निष्ठाप्रत्ययः, साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते, तेन कृतं-निर्व तितं क्रीतकृतम् । ३ वृत्ति, पत्र १८० : 'पूर्य' मिति आधाकर्मावयवसम्पृक्तं शुद्धमप्याहारजातं पूति भवति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy