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________________ सूयगडो १ १३. पाओसिणाणाइसु पत्थि मोक्खो खारस्स लोणस्स अणासणेणं । ते मज्जमंसं लसुणं चऽभोच्चा अण्णत्थ वासं परिकप्पयंति ॥ ३२५ ०७ : कुशोलपरिभाषित : श्लोक १३-१८ प्रातः स्नानादिष नास्ति मोक्षः, १३. प्रात:कालीन स्नान आदि से मोक्ष क्षारस्य लवणस्य अनशनेन । नहीं होता। क्षार नमक के तथा ते मद्यमांसं लशुनं च अभुक्त्वा , मद्य, गो-मांस५५ और लसुन न खाने अन्यत्र वास परिकल्पयन्ति ।। मात्र से वे मोक्ष की परिकल्पना कैसे करते हैं ? १४. उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति सायं च पातं उदगं फुसंता। उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी सिज्झिसु पाणा बहवे दगंसि ।। उदकेन ये सिद्धिमदाहरन्ति, सायं च प्रातः उदक स्पृशन्तः । उदकस्य स्पर्शन स्याच्च सिद्धिः, असैत्सुः प्राणा बहवो दके ।। १४. जो मनुष्य सांझ-सबेरे जल से नहाते हुए जल-स्नान से मोक्ष होना बतलाते हैं, वे (इस सचाई को भूल जाते हैं कि) यदि जल-स्नान से मोक्ष होता तो जल में रहने वाले बहुत प्राणी मुक्त हो जाते, १५. मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवाय मंगू य उद्दा दगरक्खसा य। अट्ठाणमेयं कुसला वयंति उदगेण सिद्धि जमुदाहरंति ॥ मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाश्च, मद्गवश्च उद्रा दकराक्षसाश्च । अस्थानमेतत् कुशला वदन्ति, उदकेन सिद्धि यदुदाहरन्ति ।। १५. जैसे-मछली, कछुए, जल-सर्प बतख", ऊबिलाव और जलराक्षस । जो जल से मोक्ष होना बतलाते है, उसे कुशल पुरुष अयुक्त कहते १६. उदगं जती कम्ममलं हरेज्जा एवं सुहं इच्छामित्तमेव । अंधं व यारमणुस्सरंता पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा॥ उदकं यदि कर्ममलं हरेत, १६. जल यदि" (अशुभ) कर्म-मल का हरण एवं शुभं इच्छामात्रमेव ।। करता है तो वह शुभ कर्म का भी हरण अन्धमिव नेतारमनुसरन्तः, करेगा । (जल से कर्म-मल का नाश प्राणान् चैवं विनिघ्नन्ति मन्दाः ।। होता है) यह इच्छा-कल्पित है। जैसे अंधे नेता के पीछे चलते हुए५ अंधे पथ से भटक जाते हैं वैसे ही ही मंदमति मनुष्य (शौचवाद का अनुसरण कर) प्राणियों का वध करते हैं (धर्म के पथ से भटक जाते हैं)। १७. पावाइं कम्माइं पकुव्वओ हि सीओदगं तू जइ तं हरेज्जा। सिज्झिसु एगे दगसत्तघाती मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु॥ पापानि कर्माणि प्रकुर्वतो हि, शीतोदकं तु यदि तद् हरेत् । असैत्सुः एके दकसत्वघातिनः, मषा वदन्ति जलसिद्धिमाहुः ॥ १७. यदि सजीव जल पाप-कर्म करने वाले के (पाप-कर्म का) हरण करता तो जल के जीवों का वध करने वाले (मछुए) मुक्त हो जाते । जो जल से मोक्ष होना बतलाते हैं वे असत्य बोलते हैं। १५. हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति सायं च पायं अणि फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तेसि अणि फुसंताण कुकम्मिणं पि ॥ हतेन ये सिद्धिमदाहरन्ति, सायं च प्रातः अग्नि स्पृशन्तः । एवं स्यात् सिद्धिर्भवेत्तेषां, अग्नि स्पृशतां कुर्मिणामपि । १८. सांझ और सबेरे अग्नि का स्पर्श करते हुए जो हवन से मोक्ष होना बतलाते हैं, वे (इस सचाई को भूल जाते हैं कि) यदि अग्नि के स्पर्श से मोक्ष होता तो अग्नि का स्पर्श करने वाले कुकर्मी (वन जलाने वाले आदि)" भी मुक्त हो जाते। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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