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________________ २५० सूयगडो १ अध्ययन ५: टिप्पण १६-२२ १६. ऋन्दन करते हैं (थणंति) छोटा श्वास और कुछ-कुछ शब्द हो उसे लाट देश में निस्तनि-स्तनित कहा जाता है—ऐसा चूणिकार ने उल्लेख किया है।' १७. चिरकाल तक (चिरट्टिईया) नरक में जघन्य आयु दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम की होती है, इसलिए वहां चिरकाल तक रहना होता है। श्लोक ८: १८. अति दुर्गम (अभिदुग्गा) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'गंभीर तट वाली' नदी किया है। कुछ इसे परमाधार्मिक देवों द्वारा गहरी की हुई नदी मानते हैं और कुछ इसे स्वाभाविक रूप से गहरी नदी मानते हैं।' __ वृत्तिकार ने इसका अर्थ दुःख उत्पन्न करने वाली नदी किया है।' १६. वैतरणी नदी (वेयरणी) देखें-३७६ का टिप्पण। २०. भाले से (सत्तिसु) यहां तृतीया विभक्ति के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है। शक्ति का अर्थ है-भाला।' श्लोक: २१. स्मृति-शून्य (सइविप्पहूणा) चूर्णिकार का कथन है कि नैरयिकों की स्मृति सब स्रोतों में गरम पानी डालने के कारण पहले ही नष्ट हो जाती है और जब वे गले से बींधे जाते हैं तब उनकी स्मृति और अधिक नष्ट हो जाती है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-'कर्तव्य के विवेक से शून्य' किया है।' २२. गर्दन को (कोलेहिं) _ 'कोल' देशी शब्द है । इसका अर्थ है-गला। चूणिकार ने भी इसका अर्थ 'गला' किया है। उन्होंने समझाने के लिए १. चूणि, पृ० १२८ : स्तनितं नामं अप्रततश्वासमोषत्कूजितं यद् लाडानां निस्तनिस्तनितम् । २. (क) चूणि, पृ० १२८ : चिरं तेषु चिटुंतीति चिरद्वितीया, जहण्णेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। (ख) वृत्ति, पत्र १२६ । ३. चूर्णि, पृ० १२८ : अभिमुखं भृशं वा दुर्गा अभिदुर्गा गम्भीरतटा परमाधार्मिककृता, केचिद् ब्रवते स्वाभाविकैवेति । ४. वृत्ति, पत्र १२६ : आभिमुख्येन दुर्गा अभिदुर्गा-दुःखोत्पादिका। ५. वृत्ति, पत्र १२६ : शक्तिभिश्च ...तृतीयार्थे सप्तमी। ६. चूणि, पृ० १२८ : शक्तिभिः कुन्तैश्च । ७. चणि, पृ० १२८ । तेसि तेण चेव पाणिएण कलकलकलभूतेण सव्वसोत्ताणुपवेसणा स्मृतिः पूर्वमेव नष्टा, पुनः कोलविद्धानां भृशतरं नश्यति । ८. वृत्ति, पत्र १२६ : स्मृत्या विप्रहीणा अपगतकर्तव्यविवेकाः । ९.देशीनाममाला २१४५ :... . . . . . . 'कोलो गीवा कोप्पो.........। कोलो प्रोवा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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