SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ३१. अयं व तत्तं जलियं सजोई तओवमं भूमिमणुक्कर्मता । ते उज्झमाणा कलणं थणंति उसुच्चोइया तत्तजुगेसु जुत्ता ॥४॥ ३२. बाला बला भूमिमणुक्कमंता पविज्जलं लोहपहं वततं । जंसीऽभिदुग्गंसि पवज्जमाणा पेसे व दंडेहि पुरा करेति ॥५॥ ३३. ते संपगाढंमि पवज्जमाणा सिलाहि हम्मेति भिपातिणीहि संतावणी णाम चिरईया संतप्पई जत्थ असाहुम्मा |६| ३४. कंदू पविखप्य पति बाल तओ विदड्ढा पुण उप्पतंति । ते उड्ढकाएहि पतजमाणा अवरेहि खज्जति सनकहिं 101 ३५. समूसियं णाम विधूमठाणं जं सोयतत्ता कतुणं वर्णति । अहोसिर कट्ट विगतिऊणं अयं व सत्थेहि समूसर्वेति |८| ३६. समूसिया तत्थ विसूणियंगा पवखीहि सज्जति अओोमुहेहि । संजीवणी णाम चिरट्टिईया जंसी पया हम्मइ पावचेया ॥ ६ ॥ Jain Education International २४२ अय इव तप्तां ज्वलितां सज्योतिषं तदुपमां भूमिमनुक्रामन्तः । ते दह्यमानाः करुणं स्तनन्ति, इचोदितास्तप्तयुगेष मुक्ताः ॥ अ० ५ नरकविभक्ति: श्लोक ३१-३६ ३१. तप्त लोह की भांति जलती हुई अग्नि जैसी भूमि पर चलते हुए वे जलने पर" करुण रुदन करते हैं । वे बाण से बीधे जाते हैं और ये हुए हुए से जुते रहते हैं । वाला बलाद् भूमिमनुक्रामन्तः, 'प्रविज्जला' लोहपथमिव तप्ताम् । यस्मिन् अभिदुर्गे प्रपद्यमानाः प्रेष्यानिव दण्डैः पुरः कुर्वन्ति ॥ ते संप्रगाढे प्रपद्यमानाः, शिलाभिर्हन्यन्तेऽभिपातिनीभिः 1 संतापनी नाम चिरस्थितिका, सन्तप्यते यत्रासाधकर्मा || कन्दुषु प्रक्षिप्य पचन्ति बालं, ततो विदग्धा: पुनरुत्पतन्ति । ते 'उड्डु' काकैः प्रखाद्यमानाः, अपरैः खाद्यन्ते सनखपदैः ॥ समुच्छ्रित नाम विधूमस्थानं । यत् शोकतप्ताः करुणं स्तनन्ति । अधः शिरः कृत्वा विक, अजमिव शस्त्रेषु समुच्छ्राययन्ति ॥ समुच्छितास्तत्र विसूनिताङ्गाः, पक्षिभिः खाद्यतेऽयो | संजीवनी नाम चिरस्थितिका, यस्यां प्रजाः हन्यन्ते पापचेतसः ॥ For Private & Personal Use Only ३२. नरकपाल उन अज्ञानी नैरयिकों को रक्त और पीब से सनी लोहपथ की भांति तप्त भूमि पर बलात् चलाते हैं। उस दुर्गम स्थान में चलते हुए उन नैरयिकों को प्रेष्यों की भांति डंडों से पीट-पीट कर आगे ढकेलते हैं । ३३. वे पथरीले मार्ग पर चलते हुए सामने से गिराई जाने वाली" शिलाओं से मारे जाते हैं। 'संतापनी" नाम की चिरकालीन स्थिति वाली" कुंभी में अशुभ कर्म वाले वे संतप्त किए जाते हैं । ३४. नरकपाल अज्ञानी नैरयिकों को कडाही में डाल कर पकाते हैं । वे भुने जाते हुए ऊपर उछलते हैं तब उन्हें द्राण (बड़े कौए) खाने लगते हैं। भूमि पर गिरे हुए टुकड़ों को दूसरे सिंह व्याप्त आदि" खा जाते हैं ।" ३५. वहां एक बहुत ऊंचा " विधूम अग्नि का स्थान" है, जिसमें जाकर वे नैरयिक शोक से तप्त होकर करुण रुदन करते हैं । नरकपाल उन्हें बकरे की भांति ओंधे शिर कर, उनके शिर को काटते हैं और शूल पर लटका देते हैं । ८६ ३६. शूल पर लटकते", चमड़ी उकेले हुए वे नरयिक लोहे की चोंच वाले पक्षियों द्वारा खाए जाते हैं । नरकभूमी 'संजी वनी " ( बार-बार जिलाने वाली ) होने के कारण चिरस्थिति वाली" है । उसमें पापचेता" प्रजा प्रताडित की जाती है। www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy