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________________ सूयगडो १ २३५ अध्ययन ५: प्रामुख ७. काल—ये देव नारकियों को भिन्न-भिन्न प्रकार के कडाहों में पकाते हैं, उबालते हैं और उन्हें जीवित मछलियों की तरह सेंकते हैं। ८ महाकाल-ये देव नारकों के छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं, पीठ की चमड़ी उधेड़ते हैं और जो नारक पूर्वभव में मांसाहारी थे उन्हें वह मांस खिलाते हैं । ६. असि—ये देव नारकीय जीवों के अंग-प्रत्यंगों के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं, दुःख उत्पादित करते हैं। १०. असिपत्र (या धनु)--ये देव असिपत्र नाम के वन की विकुर्वणा करते हैं। नारकीय जीव छाया के लोभ से उन वृक्षों के नीचे आकर विश्राम करते हैं । तब हवा के झोंकों से असिधारा की भांति तीखे पत्ते उन पर पड़ते हैं और वे छिद जाते हैं । ११. कुंभि (कुंभ)-ये देव विभिन्न प्रकार के पात्रों में नारकीय जीवों को डालकर पकाते हैं । १२. बालुक-ये देव गरम बालू से भरे पात्रों में नारकों को चने की तरह भुनते हैं। १३. वैतरणी-ये नरकपाल बैतरणी नदी की विकुर्वणा करते हैं। वह नदी पीब, लोही, केश और हड्डियों से भरी-पूरी होती है। उसमें खारा गरम पानी बहता है । उस नदी में नारकीय जीवों को बहाया जाता है। १४. खरस्वर-ये नरकपाल छोटे-छोटे धागों की तरह सूक्ष्म रूप से नारकों के शरीर को चीरते हैं। फिर उनके और भी सूक्ष्म टुकड़े करते हैं । उनको पुनः जोड़कर सचेतन करते हैं । कठोर स्वर में रोते हुये नारकों को शाल्मली वृक्ष पर चढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं । वह वृक्ष वज्रमय तीखे कांटों से संकुल होता है। नारक उस पर चढ़ते हैं। नरकपाल पुनः उन्हें खींचकर नीचे ले आते हैं । यह क्रम चलता रहता है। १५. महाघोष-ये सभी असुरदेवों में अधम जाति के माने जाते हैं। ये नरकपाल नारकों को भीषण वेदना देकर परम मुदित होते हैं। यह पनरह परमाधार्मिक देवों-नरकपालों का संक्षिप्त विवरण है। नियुक्तिकार ने सतरह गाथाओं में नरकपालों के नाम और उन नामों के अनुरूप कायों का निर्देश दिया है।' चूर्णिकार ने इन गाथओं की विशेष व्याख्या नहीं की है। वृत्तिकार ने इनका विस्तार से वर्णन किया है।' प्रस्तुत अध्ययन के दो उद्देशक हैं । पहले उद्देशक में २७ और दूसरे में २५ श्लोक हैं। इन श्लोकों में नरकों में प्राप्त वेदनाओं का सांगोपांग वर्णन है । पचासवें श्लोक में कहा गया है कि प्राणी अपने पूर्व भव में तीव्र, मंद और मध्यम अध्यवसायों से पापकर्म करता है और उसी के अनुरूप उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम स्थिति वाले कर्मों का बन्ध कर उस काल स्थिति तक कर्मों का वेदन करता है। उन नरकों में 'अच्छिणिमोलियमेत्तं णस्थि सुहं किंचि कालमणुबद्ध-आंख की पलकें झपके उतने समय का भी सुख नहीं है। वस्तुतः यह अध्ययन अठारह पापों के आचरण के प्रति विरक्ति पैदा करता है। सूत्रकार के अनुसार नारकीय वेदना से मुक्त होने के उपाय हैं १. हिंसा-निवृत्ति २. सत्य आदि का आचरण ३. असंग्रह का पालन ४. कषाय-निग्रह ५. अठारह पापों से निवृत्ति ६. चारित्र का अनुपालन ।' १. नियुक्ति गाथा ५६-७५ । २. चूर्णि, पृ० १२३-१२६ । ३. वृत्ति, पत्र १२३-१२६ । ४. चूणि, पृ० १३६ । जारिसाणि तिब्व-मंद-मज्झिम-अज्झवसाएहि जघण्णमज्झिमुक्किट्ठठितीयाणी कम्माणि कताणि तं तधा अणुभवंति। ५. चूणि, पृ० १३० में उद्धृत । ६. सूयगडो ५.५१,५२। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only al Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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