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________________ चउत्थं अज्झयणं : चौथा अध्ययन इत्थीपरिण्णा : स्त्रीपरिज्ञा पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक मूल १.जे मायरं च पियरं च विप्पजहाय पुव्वसंजोगं । एगे सहिए चरिस्सामि आरतमेहुणो विवित्तेसी ॥१॥ २. सुहमेणं तं परक्कम्म छण्णपएण इत्थीओ मंदा। उवायं पि ताओ जाणंति जह लिस्संति भिक्खु णो एगे ।२। संस्कृत छाया यो मातरं च पितरं च, विप्रहाय पूर्वसंयोगम् । एक: सहितः चरिष्यामि, आरतमैथुनो विविक्तषी॥ सूक्ष्मेण तं पराक्रम्य, छन्नपदेन स्त्रियः मन्दाः । उपायं अपि ताः जानन्ति, यथा श्लिष्यन्ते भिक्षवः एके ॥ हिन्दी अनुवाद १. जो भिक्षु माता, पिता और पूर्व-संयोग को' छोड़कर (संकल्प करता है-) मैं अकेला', आत्मस्थ' और मैथुन से विरत होकर एकान्त में विचरूंगा।' २. मंद स्त्रियां निपुण और गूढ वाच्य वाले पदों का प्रयोग करती हुई मुनि के पास आती हैं। वे उस उपाय को भी जानती हैं जिससे कोई भिक्षु उनके संग में फंसता है। ३. वे उस भिक्षु के अत्यन्त निकट बैठती हैं, अधोवस्त्र को बार-बार ढीला कर उसे बांधती हैं, शरीर के अधोभाग को दिखलाती हैं और भुजाओं को ऊपर उठाकर कांख को बजाती हैं। ४. वे स्त्रियां कालोचित" शयन" और आसन के लिए कभी उसे निमंत्रित करती हैं।" उस मुनि को जानना चाहिए कि ये (निमंत्रण आदि) नाना प्रकार के उपक्रम उसके लिए बंधन ३. पासे भिसं णिसीयंति अभिक्खणं पोसवत्थं परिहिति । कार्य अहे वि संति बाहु मुटु कक्खमणुव्बजे ।३।। पार्वे भृशं निषीदन्ति, अभीक्ष्णं पोषवस्त्रं परिदधति । कायं अधोऽपि दर्शयन्ति, बाहुमुद्धृत्य कक्षामनुवादयन्ति । ४. सयणासणेहि जोग्गेहि इत्थीओ एगया णिमंतेति । एयाणि चेव से जाणे पासाणि विरूवरूवाणि ।।। शयनासनेष योग्येष, स्त्रियः एकदा निमन्त्रयन्ति । एतान् चैव स जानीयात्, पाशान् विरूपरूपान् ॥ ५. णो तासु चक्खु संधेज्जा णो वि य साहसं समणुजाणे। णो सद्धियं पि विहरेज्जा एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ।। नो तासु चक्षुः सन्दध्यात्, नो अपि च साहसं समनुजानीयात् । नो सार्धकं अपि विहरेत्, एवमात्मा सुरक्षितो भवति ॥ ५. मुनि उनसे (स्त्रियों से) आंख न मिलाए । उनके साहस (मैथुनभावना) का अनुमोदन न करे । उनके साथ विहार भी न करे । इस प्रकार आत्मा सुरक्षित रहता है।" ६. स्त्रियां भिक्षु को आमंत्रित कर (संकेत देकर) तथा उसकी आशंकाओं को शांत कर स्वयं सहवास का निमंत्रण देती हैं।" उस मुनि को जानना चाहिए कि ये नाना प्रकार के (निमत्रण रूप) शब्दर उसके लिए बंधन ६.आमंतिय ओसवियं वा भिक्खू आयसा णिमति । एयाणि चेव से जाणे सद्दाणि विरूवरूवाणि ॥६॥ आमन्त्र्य उपशम्य वा, भिक्षु आत्मना निमन्त्रयन्ति । एतान् चैव स जानीयात्, शब्दान् विरूपरूपान् ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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