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________________ सूयगडो १ ६०. एवं कामेसणाविऊ अज्ज हुए पपहेन्ज संघवं । कामी कामे ण कामए लड़े या वि अलद्ध ६ ६१. मा पच्छ असाहुया भवे अच्चेही अणुसास अप्पगं । अहियं च असाहू सोयई से यणई परिवेवई बहुं 1७1 जीवियमेव पासहा तरुण एव वाससयस्स तुट्टई । इत्तरवासं व बुज्झहा गिद्ध णरा कामेसु मुखिया ॥८॥ ६२. इह इह आरंभणिस्सिया आयदंड एगंलूगा गंता ते पावलोपर्य चिररायं आसुरियं दिसं ॥ 8 । ६३. जे ६४. य संखयमाहू जीवियं तह विय बालजणो पग भई । पच्चुयष्णेच कारिय के दठ्ठे पर लोगमागए ? | १० | ६५. अदव ! दवखुवाहियं सद्दहस हंदि ! अवक्खुदंसणा ! | सुनिरुद्धदंसणे मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा । ११ । हु Jain Education International ६३ एवं कामैषणा विद्वान्, अथ श्वः प्रजह्यात् संस्तवम् । कामी कामान् न कामयेत, लब्धान् वापि अलब्धान् कुतश्चित् ॥ मा पश्चाद् असाधुता भवेत्, अत्येहि अनुशाधि आत्मकम् । अधिकच असाधुः शोचति, स स्तनति परिदेवते बहु || इह जीवितमेव पश्यत, तरुण एव वर्षशतस्य त्रुट्यति । इत्वरवास वा बुध्यध्वं, गुद्धाः नराः कामेषु मूच्छिताः । ये इह आरंभनिश्रिताः, आत्मदण्डाः एकान्तलूषकाः । गन्तारस्ते पापलोकक चिररात्रं आसुरीयां दिशम् ।। न च संस्कृतमाहुः जीवितं, तथापि च बालजनः प्रगल्भते । प्रत्युत्पन्नेन कार्य, कः दृष्ट्वा परलोकमागतः ? अद्रष्टृवत् ! श्रद्धस्व द्रष्टव्याहृतं, अद्रष्टृदर्शनः ! हन्त ! खलु सुनिरुद्धदर्शन:, मोहनीयेन कृतेन कर्मणा ॥ श्र० २ : वैतालीय : श्लोक ६०-६५ कीचड़ में फंस जाता है इसी प्रकार कामैषणा को जानने वाला ( काम के संत्रास से पीडित होकर सोचता है कि ) मुझे आज या कल यह संस्तव ( काम भोग ) " छोड़ देना चाहिए। ( वह उस संस्तव को छोड़ना चाहते हुए भी कुदुम्बपोषण आदि के दुःखों से प्रताडित और प्रेरित होकर उन्हें छोड़ नहीं पाता। प्रत्युत् उस बैल की भांति अल्प प्राण होकर उनमें निमग्न हो जाता है।) इसलिए मनुष्य कामी होकर कहीं भी प्राप्त या अप्राप्त कामों की कामना न करे । For Private & Personal Use Only ६१. मरणकाल में असाधुता (शोक या अनुताप न हो इसलिए तु कामभोगों का अतिक्रमण कर अपने को अनुशासित कर । ( जितना अधिक) जो असाधु होता है वह उतना ही अधिक शोक करता है, क्रन्दन करता है और बहुत विलाप करता है। ६२. यहीं जीवन को देखो। सौ वर्ष जीने वाला मनुष्य तारुण्य में ही मर जाता है । यह जीवन अल्पकालिक वास है इसे तुम जानो (फिर भी ) आसक्त मनुष्य कामभोगों में मूच्छित रहते हैं। ६३. जो हिंसा परायण, आत्मघाती और विजन में लूटने वाले हैं वे नरक में " जायेंगे और उस आसुरी दिशा में चिरकाल तक रहेंगे । ६४. (टूटे हुए) जीवन को सांधा नहीं जा सकता। फिर भी अज्ञानी मनुष्य घृष्टता करता है-हिंसा आदि में प्रवृत्त होता है। ( वह सोचता है) मुझे वर्तमान से प्रयोजन है को देखकर कौन लौटा है ? परलोक ६५. हे अन्धतुल्य ! हे द्रष्टा के दर्शन से शून्य ! ( हे अर्वाग्दर्शी ! ) तुम द्रष्टा के वचन पर श्रद्धा करो | अपने किए हुए मोहनीय कर्म के द्वारा तुम्हारा दर्शन निरुद्ध है, इसे तुम जानो । www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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