SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ करें 1 उसका अन्यथा प्रतिपादन न इसकी व्याख्या में चूर्णिकार ने लिखा है--सूत्र को सर्वथा ही अन्यथा न करे अर्थ वही करे जो स्वसिद्धान्त से अविरुद्ध है। वृतिकार ने लिखा है' — सूत्र में स्वमति से न जोड़े अथवा सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे । उक्त विवरण से ज्ञात होता है कि सूत्र अर्थ के मौलिक स्वरूप की सुरक्षा का तीव्र प्रयत्न किया गया था । फलतः एक सीमा तक उसकी सुरक्षा भी हुई है। फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि उसमें परिवर्तन नहीं हुआ है। वह उसके कारण भी प्राप्त हैं। जैसे१. विस्मृति, २ लिपिपरिवर्तन, ३. व्याख्या का मूल में प्रवेश, ४. देश-काल का व्यवधान | शीलांकसूरि सूत्रकृतांग की वृत्ति लिख रहे थे तब उनके सामने उसके आदर्श और प्राचीन टीका -- दोनों विद्यमान थे । दूसरे अ तस्कन्ध के दूसरे अध्ययन के एक स्थल में आदर्शों में एक 'जैसा पाठ नहीं था और टीका में जो पाठ व्याख्यात था उसका संवादी पाठ किसी भी आदर्श में नहीं था इसलिए उन्होंने एक आदर्श को मान्य कर पचित अंश की व्याख्या की। । कुछ स्थानों पर हमने चूर्णि के पाठ स्वीकृत किए हैं। आदर्शों और वृत्ति की अपेक्षा से वे अधिक संगत प्रतीत होते हैं । २।६।४५ में 'जिहो णिसं' पाठ है। वह वृत्ति में 'णिवो णिसं' इस प्रकार व्याख्यात है । वहां हमने चूर्णि का पाठ स्वीकृत किया है।" पादटिप्पणों में हमने पाठ-परिवर्तन व उनके कारणों की चर्चा की है। वैदिक परम्परा में भी वेदों के मौलिक पाठ की सुरक्षा के लिए तीव्र प्रयत्न किए थे। किन्तु उनके पाठों में भी कालजनित अतिक्रमण हुए हैं। डा० विश्वबन्धु ने लिखा है ' - - "यह सर्वमान्य तथ्य है १. सुगडो, १।१४ २६ : श्री सुमत्यं च करेग्न ―― २. सूत्रकृतांगणि, पृ० २६६ : मसूलमन्यत् प्रद्वेषेण करोरन्यथा था, जहा रणो भनि उज्वलानो नामार्थः कुर्यात् जहा 'आयंती के अवंती - एके यावंती तं लोगो विप्परामसंति' सूत्रं सर्वचैवान्यथा न कर्त्तव्यं, अर्थविकल्पस्तु विषयः स्यात् । ३. सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र २५८ : न च मन्यत् स्वमतिविकल्पनतः स्वपरत्राची कुर्वीतान्यथा वानं तदर्थं वा संसारात्त्रायताणशीलो जन्तूनां न विदधीत । ४. वही, पत्र ७६ । इह प्रायः वाद नानाविधानि सुवाणि दृश्यन्ते न च टीकायाप्यस्माभिरादर्शः समुपलम्योत एकमादर्श मंगीकृत्यास्माभिविवरणं क्रियते । Jain Education International ५. देखें- २२६१४५ का पादटिप्पण ६. अचिन भारतीय प्राच्यविद्या-सम्मेलन, चौवीसन अधिवेशन वाराणसी १९६० मुख्याध्यक्षीय भाषण, पृष्ठ ८, १ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003557
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages381
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy