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________________ 646] [उत्तराध्ययनसून सिद्ध जीवों को स्थिति- यद्यपि सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने के पश्चात् सभी जीवों की स्थिति समान हो जाती है, उनकी आत्मा में कोई स्त्री-पुरुष नपुंसकादि कृत अन्तर-उपाधिजनित भेद नहीं रहता, फिर भी भूतपूर्व पर्याय (अवस्था) की दृष्टि से यहाँ उनके अनेक भेद किए गए हैं। उपलक्षण से यह तथ्य त्रैकालिक समझना चाहिए, अर्थात्-सिद्ध होते हैं, सिद्ध होंगे और सिद्ध हुए हैं।' लिंगदृष्टि से सिद्धों के प्रकार-प्रस्तुत में लिंग की दृष्टि से 6 प्रकार बताए गए हैं—(१) स्त्रीलिंग (स्त्रीपर्याय से) सिद्ध, पुरुषलिंग (पुरुषपर्याय से) सिद्ध. (3) नपुंसकलिंग (नपुंसकपर्याय से) सिद्ध, (4) स्वलिंग (स्वतीथिक अनगार के वेष से) सिद्ध, (5) अन्यलिंग (अन्यतीर्थिक साधु वेष से) सिद्ध और (6) गहिलिंग (गृहस्थ वेष से) सिद्ध / इनमें से पहले तीन प्रकार लिंग (पर्याय) की अपेक्षा से तथा पिछले तीन प्रकार वेष की अपेक्षा से हैं / सिद्धों के अन्य प्रकार-उपर्युक्त 6 प्रकारों के अतिरिक्त तीर्थादि की अपेक्षा से सिद्धों के 6 प्रकार और होते हैं, जिन्हें गाथा (सं. 46) में प्रयुक्त 'च' शब्द से समझ लेना चाहिए। यथा-तीर्थ की अपेक्षा से 4 भेद-(७) तीर्थसिद्ध, (8) अतीर्थसिद्ध-तीर्थस्थापना से पहले या तीर्थविच्छेद के पश्चात् सिद्ध, (6) तीर्थंकर सिद्ध (तीर्थंकर रूप में सिद्ध) और (10) अतीर्थकर (रूप में) सिद्ध / बोधि की अपेक्षा से तीन भेद-(११) स्वयंबुद्धसिद्ध, (12) प्रत्येकबुद्धसिद्ध और (13) बुद्धबोधित सिद्ध / संख्या की अपेक्षा सिद्ध के दो भेद--(१४) एक सिद्ध (एक समय में एक जीव सिद्ध होता है, वह), तथा (15) अनेक सिद्ध- (एक समय में अनेक जीव उत्कृष्टतः 108 सिद्ध होते हैं, वे)। सिद्धों के पूर्वोक्त 6 प्रकार और ये 6 प्रकार मिलाकर कुल 15 प्रकार के सिद्धों का उल्लेख नन्दीसूत्र, प्रौपपातिक आदि शास्त्रों में है। ___ अवगाहना की अपेक्षा से सिद्ध-तीन प्रकार के हैं-(१) उत्कृष्ट (पांच सौ धनुष परिमित) अवगाहना वाले, (2) जघन्य (दो हाथ प्रमाण) अवगाहना वाले और (3) मध्यम (दो हाथ से अधिक और पांच सौ धनुष से कम) अवगाहना वाले सिद्ध / अवगाहना शरीर की ऊँचाई को कहते हैं।४ / क्षेत्र की अपेक्षा से सिद्ध-पांच प्रकार के होते हैं--(१) ऊर्ध्वदिशा (14 रज्जुप्रमाण लोक में से मेरु पर्वत की चूलिका आदि रूप सात रज्जु से कुछ कम यानी 600 योजन ऊँचाई वाले ऊर्वलोक) में होने वाले सिद्ध, (2) अधोदिशा (कुबड़ीविजय के अधोग्राम रूप अधोलोक में, अर्थात्-७ रज्जु से कुछ अधिक यानी 600 योजन से कुछ अधिक लम्बाई वाले अधोलोक से होने वाले सिद्ध और (3) तिर्यक दिशा-अढाई द्वीप और दो समुद्ररूप तिरछे एवं 1800 योजन प्रमाण लम्बे तिर्यकलोक--मनुष्यक्षेत्र से होने वाले सिद्ध / (4) समुद्र में से होने वाले सिद्ध और (5) नदी आदि में से होने वाले सिद्ध / 1. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 340 (ख) उत्तरा. (टिप्पण मूनि नथमलजी) 5. 317-318 2. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. 2, पत्र 340 (ख) उत्तरा. प्रियदशिनी टीका, भा. 4, पृ. 741-793 3. (क) उत्सरा. (गुजरातो भाषान्तर) भा, 2, पत्र 340 (ख) नन्दीसूत्र मू. 21 में सिद्धों के 15 प्रकार देखिये। 4. उत्सरा, (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 340 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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