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________________ 498] [उत्तराध्ययनसूत्र [18 प्र.] भन्ते ! क्षामणा-क्षमापणा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? उ.] क्षमापणा से जीव को प्रह्लादभाव प्राप्त होता है। प्रह्लादभाव से सम्पन्न साधक सर्व प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के प्रति मैत्रीभाव को प्राप्त होता है। मैत्रीभाव को प्राप्त जीव भावविशुद्धि करके निर्भय हो जाता है / विवेचन–क्षामणा-क्षमापना : तात्पर्य—किसी दुष्कृत या अपराध के अनन्तर गुरु या प्राचार्य के समक्ष---“गुरुदेव ! मेरा अपराध क्षमा कीजिए, भविष्य में मैं यह अपराध नहीं करूंगा, इत्यादिरूप से क्षमा मांगना क्षामणा और उनके द्वारा क्षमा प्रदान करना 'क्षमापना' है।' क्षमापना के तीन परिणाम-क्षमापना के उत्तरोत्तर तीन परिणाम निर्दिष्ट हैं-(१) प्रह्लादभाव, (2) सर्वभूतमैत्रीभाव एवं (3) निर्भयता / भय के कारण हैं-राग और द्वेष, उनसे वैरविरोध को वृद्धि होती है एवं आत्मा की प्रसन्नता नष्ट हो जाती है। अतः क्षमापना ही इन सबको टिकाए रखने के लिए सर्वोत्तम उपाय है / 2 18 से 24 स्वाध्याय एवं उसके अंगों से लाभ १९--सज्झाएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ / / [16 प्र.] भन्ते ! स्वाध्याय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीयकर्म का क्षय करता है। २०-वायणाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? वायणाए णं निज्जरं जणयइ / सुयस्स य अणासायणाए वट्टए सुयस्स प्रणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्म अवलम्बइ / तित्थधम्म अवलम्बमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ // [20 प्र.] भन्ते ! वाचना से जीव को क्या लाभ होता है ? [उ.] वाचना से जीव कर्मों की निर्जरा करता है, श्रुत (शास्त्रज्ञान) की पाशातना से दूर रहता है। श्रुत की अनाशातना में प्रवृत्त हुया जीव तीर्थधर्म का अवलम्बन लेता हैं। तीर्थधर्म का अवलम्बन लेने वाला साधक (कर्मों की) महानिर्जरा और महापर्यवसान करता है / २१-पडिपुच्छणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? पडिपुच्छणयाए णं सुत्तऽत्थतदुभयाइं विसोहेइ / कंखामोहणिज्जं कम्मं वोच्छिन्दइ॥ [21 प्र.) भन्ते ! प्रतिपृच्छना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] प्रतिपृच्छना से जीव सूत्र, अर्थ और तदुभय ( दोनों) को विशुद्ध कर लेता है तथा कांक्षामोहनीय को विच्छिन्न कर देता है। 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 584 2. उत्तरा. प्रियशनीटीका भा. 4, पृ. 261-262 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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