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________________ बीसवां अध्ययन : महानिग्रंथीय] [343 अर्थात् आत्मा ही आत्मा का नाथ है या हो सकता है। इसका दूसरा कौन नाथ (स्वामी) हो सकता है ? ___ भलीभांति दमन किया गया प्रात्मा स्वयं ही दुर्लभ 'नाथ' (स्वामित्व) पद प्राप्त कर लेता है। प्रात्मा हो मित्र और शत्रु आदि अात्मा उपकारी होने से मित्र है और अपकारी होने से शत्रु / दुष्प्रवृत्ति में स्थित प्रात्मा शत्रु है और सत्प्रवृत्ति में स्थित मित्र है। दुष्प्रस्थित प्रात्मा ही समस्त दुःखहेतु होने से वैतरणी आदि रूप है और सुप्रस्थित आत्मा सकल सुखहेतु होने से कामधेनु, नन्दनवन आदि रूप है।' निष्कर्ष प्रस्तुत दो गाथाओं (36-37) में यह प्राशय गभित है कि प्रवज्यावस्था में सुप्रस्थित होने से योगक्षेम करने में समर्थ होने से साधु स्व-पर का नाथ हो जाता है / अन्य प्रकार की अनाथता 38. इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा! तमेगचित्तो निहुओ सुर्णेहि / नियण्ठधम्म लहियाण बी जहा सोयन्ति एगे बहुकायरा नरा // [38] हे नृप ! यह एक और भी अनाथता है; शान्त और एकाग्रचित्त हो कर उसे सुनो। जैसे—कई अत्यन्त कायर नर होते हैं, जो निर्ग्रन्थधर्म को पा कर भी दुःखानुभव करते हैं / (-उसका आचरण करने में शिथिल हो जाते हैं / ) 39. जो पब्वइत्ताण महन्वयाइं सम्मं नो फासयई पमाया। ___ अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्ध न मूलओ छिन्दइ बन्धणं से / [36] जो प्रव्रज्या ग्रहण करके प्रमादवश महाव्रतों का सम्यक पालन नहीं करता; अपनी प्रात्मा का निग्रह नहीं करता; रसों में प्रासक्त रहता है। वह मूल से (रागद्वेषरूप) बन्धन का उच्छेद नहीं कर पाता। 40. पाउत्तया जस्स न अस्थि काइ इरियाए भासाए तहेसणाए। आयाण-निक्खेव-दुगुणाए न वीरजायं अणुजाइ मग्गं // [40] जिसकी ईर्या, भाषा, एषणा और आदान-निक्षेप में तथा उच्चार-प्रस्रवणादिपरिष्ठापन (जुगुप्सना) में कोई भी प्रायुक्तता ( सावधानी) नहीं है, वह वीरयात–वीर पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग का अनुगमन नहीं कर सकता। 41. चिरं पि से मुण्डरुई भवित्ता अथिरव्यए तव-नियमेहि भट्ठ। चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता न पारए होइ हु संपराए / [41] जो अहिंसादि व्रतों में अस्थिर है, तप और नियमों से भ्रष्ट है, वह चिरकाल तक 1. बृहद्वत्ति, पत्र 467 का तात्पर्य 2. वही, पत्र 477 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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