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________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय] [315 विवेचन-श्रमणधर्म को कठिनता का प्रतिपादन–२४ वीं से 43 वीं तक 16 गाथाओं में मृगापुत्र के समक्ष उसके माता-पिता ने श्रमणधर्म की दुष्करता एवं कठिनता का चित्र विविध पहलुओं से प्रस्तुत किया है। वह इस प्रकार है हजारों गुणों को धारण करना, प्राणिमात्र पर समभाव रखना और प्राणातिपात अादि पांच महाव्रतों का पालन करना अत्यन्त दुष्कर है। रात्रि-भोजनत्याग, संग्रह-त्याग भी अतीव कठिनतर है; यह यहाँ प्रथम सात गाथानों में प्रतिपादित है / तत्पश्चात् बाईस परीषहों में से 13 परीषहों को सहन करने की कठिनता का दिग्दर्शन 31-32 वीं दो गाथाओं में कराया गया है। इसके बाद 33 वीं गाथा में श्रमणधर्म के अन्तर्गत कापोतीवृत्ति, केशलोच, घोर ब्रह्मचर्यपालन को महासत्त्वशालियों के लिए भी अतिदुष्कर बताया गया है और 34 वीं गाथा में मृगापुत्र की सुखभोगयोग्य वय, सुकुमारता, स्वच्छता आदि प्रकृति की याद दिला कर श्रमणधर्मपालन में उसकी असमर्थता का संकेत किया गया है। तदनन्तर विविध उपमाओं द्वारा श्रमणधर्म के आचरण को अतीव दुष्कर सिद्ध करने का प्रयास किया गया है और अन्त में 44 वीं गाथा में उसे सुझाव दिया गया है कि यदि इतनी दुष्करताओं और कठिनाइयों के बावजूद भी तेरी इच्छा श्रमणधर्म के पालन को हो तो पहले पंचेन्द्रिय-विषयभोगों को भोग कर फिर साधु बन जाना।' गुणाणं तु सहस्साई०–साधु को श्रामण्य के लिए उपकारक शीलांगरूप सहस्र गुणों को धारण करना होता है। समया सव्वभूएसु–साधु को यावज्जीवन सामायिक का पालन करना होता है / दंतसोहणमाइस्स-(१) दांत कुरेदने की तिनके की पतली सलाई, अथवा (2) दांतों की सफाई करने की दतौन आदि / आशय यह है कि दांत कुरेदने को तिनके की सलाई जैसी तुच्छतर वस्तु को भी आज्ञा बिना ग्रहण करन। साधु के लिए वजित है, तो फिर अदत्त मूल्यवान् पदार्थों को ग्रहण करना तो जित है ही। कामभोगरसन्नुणा-(१) कामभोगों के रस को जानने वाला, (2) कामभोगों और शृंगारादि रसों के ज्ञाता। परिग्रह, सर्वारम्भ एवं ममत्व का परित्याग-इन तीनों के परित्याग द्वारा साधुवर्ग में निराकांक्षता और निर्ममत्व का होना अनिवार्य बताया है।" 1. उत्तराध्ययन अ. 19, मूलपाठ, बृहद्वृत्ति, पत्र 455-456 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 456 3. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ० 493 (ख) उत्तरा. विवेचन (मुनि नथमल), पृ. 243 4. बृहद्वत्ति, पत्र 456 5. वही, पत्र 456 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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