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________________ सोलहवां अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान] [251 नियम ब्रह्मचर्यसाधना के सजग प्रहरी हैं। इनसे ब्रह्मचर्य की सर्वांगीण साधना में सुगमता रहती है। * स्वयं शास्त्रकार ने इन दस समाधिस्थानों की उपयोगिता मूलपाठ में प्रारम्भ में बता दी है कि इनके पालन से साधक की आत्मा संयम, संबर और समाधि से अधिकाधिक सम्पन्न हो सकती है, बशर्ते कि वह मन, वचन, काया का संगोपन करे, इन्द्रियां वश में रखे, अप्रमत्तभाव से विचरण करे। * प्रस्तुत अध्ययन में ब्रह्मचर्य-सुरक्षा के लिए बताए गए समाधिस्थान क्रमश: इस प्रकार हैं (1) स्त्री-पशु-नपुंसक से विविक्त (अनाकीर्ण) शयन और आसन का सेवन करे, (2) स्त्रीकथा न करे, (3) स्त्रियों के साथ एक प्रासन पर न बैठे, (4) स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि गड़ा कर न देखे, न चिन्तन करे, (5) दीवार आदि की प्रोट में स्त्रियों के कामविकारजनक शब्द न सुने, (6) पूर्वावस्था में की हुई रति एवं क्रीड़ा का स्मरण न करे, (7) प्रणीत (सरस स्वादिष्ट पौष्टिक आहार न करे, (8) मात्रा से अधिक आहार-पानी का सेवन न करे, (6) शरीर की विभूषा न करे और (10) पंचेन्द्रिय-विषयों में आसक्त न हो।' स्थानांग और समवायांग में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का उल्लेख है। उत्तराध्ययन में जो दसवाँ समाधिस्थान है, वह यहाँ आठवीं गुप्ति है। केवल पांचवाँ समाधिस्थान, स्थानांग एवं समवायांग में नहीं है / उत्तराध्ययन के 6 वे स्थान-विभूषात्याग के बदले उनमें नौवीं गुप्ति है--साता और सुख में प्रतिबद्ध न हो। मूलाचार में शीलविराधना (अब्रह्मचर्य) के दस कारण ये बतलाए हैं—(१) स्त्रीसंसर्ग, (2) प्रणीतरस भोजन, (3) गन्धमाल्यसंस्पर्श, (4) शयनासनगृद्धि, (5) भूषणमण्डन, (6) गीतवाद्यादि की अभिलाषा, (7) अर्थसम्प्रयोजन, (8) कुशीलसंसर्ग, (6) राजसेवा (विषयों की सम्पूर्ति के लिए राजा की अतिशय प्रशंसा करना) और (10) रात्रिसंचरण / * अनगारधर्मामृत में 10 नियमों में से तीन नियम भिन्न हैं। जैसे--(२) लिंगविकारजनक कार्य निषेध, (6) स्त्रीसत्कारवर्जन, (10) इष्ट रूपादि विषयों में मन को न जोड़े / __ स्मृतियों में ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए स्मरण, कीर्तन, क्रीडा, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यव साय और क्रियानिष्पत्ति, इन अष्ट मैथुनांगों से दूर रहने का विधान है। * प्रस्तुत दस समाधिस्थानों में स्पर्शनेन्द्रियसंयम के लिए सह-शयनासन तथा एकासननिषद्या का, रसनेन्द्रियसंयम के लिए अतिमात्रा में ग्राहार एवं प्रणीत अाहार सेवन का. चक्षरिन्द्रियसंयम के लिए स्त्री देह एवं उसके हावभावों के निरीक्षण का, मनःसंयम के लिए कामकथा, विभूषा एवं 29 1. उत्तरा, मूल, अ. 16, सू. 1 से 12, गा. 1 से 13 तक 2. (क) स्थानांग. 9 / 663 (ख) समवायांग, सम. 9 (ग) मूलाचार 11:13-14 (घ) अनगारधर्मामृत 4 / 61 (ङ) दक्षस्मृति 7 / 31-33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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