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________________ 218] [ उत्तराध्ययनसूत्र 29. तस्स मे अपडिकन्तस्स इमं एयारिसं फलं / जाणमाणो वि जं धम्म कामभोगेसु मुच्छिओ॥ [26] (मृत्यु के समय) मैंने उस निदान का प्रतिक्रमण नहीं किया, उसी का इस प्रकार का यह फल है कि धर्म को जानता-बूझता हुआ भी मैं कामभोगों में मूच्छित (आसक्त) हूँ। (उन्हें छोड़ नहीं पाता।) /30. नागो जहा पंकजलावसन्नो दटुंथलं नाभिसमेइ तोरं / एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो॥ _ [30] जैसे पंकजल (दलदल) में फंसा हुअा हाथी स्थल (सूखी भूमि) को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुँच पाता; उसी प्रकार हम (श्रमण-धर्म को जानते हुए) भी कामगुणों (शब्दादि विषय-भोगों) में प्रासक्त बने हुए हैं, (इस कारण) भिक्षुमार्ग का अनुसरण नहीं कर पाते / 31. अच्चेइ कालो तूरन्ति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। __उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति दुमं जहा खोणफलं व पक्खी // [31] (मुनि)--राजन् ! समय व्यतीत हो रहा है / रात्रियाँ (दिन-रात) द्रतगति से भागी जा रही हैं और मनुष्यों के (विषयसुख-) भोग भी नित्य नहीं हैं। कामभोग क्षीणपुण्य वाले व्यक्ति को वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे क्षीणफल वाले वृक्ष को पक्षी।। 32. जइ तं सि भोगे चइउं असत्तो अज्जाइं कम्माइं करेहि रायं! धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकम्पो तो होहिसि देवो इनो विउव्वी // [32] राजन् ! यदि तू (इस समय) भोगों (कामभोगों) को छोड़ने में असमर्थ है तो आर्यकर्म कर / धर्म में स्थिर होकर समस्त प्राणियों पर दया-(अनुकम्पा.) परायण बन, जिससे कि तू भविष्य में इस (मनुष्यभव) के अनन्तर वैक्रियशरीरधारी (वैमानिक) देव हो सके। 33. न तुज्झ भोगे चइऊण बुद्धी गिद्धो सि आरम्भ-परिग्गहेसु। __मोहं कओ एत्तिउ विप्पलावो गच्छामि रायं ! आमन्तिोऽसि // [33] (मुनि)-(शब्दादि काम-) भोगों को त्यागने की (तदनुसार धर्माचरण करने की) तेरी बुद्धि (दृष्टि या रुचि) नहीं है। तू प्रारम्भ-परिग्रह में गृद्ध (आसक्त) है / मैंने व्यर्थ ही इतना प्रलाप (बकवास) किया और तुझे सम्बोधित किया (-धर्माराधना के लिए ग्रामन्त्रित किया)। राजन् ! (अब) मैं जा रहा हूँ। विवेचन-प्रेयमार्गो और श्रेयमार्गो का संवाद–प्रस्तुत अध्ययन की गाथा 8 से 33 तक पांच पूर्वजन्मों में साथ-साथ रहे हुए दो भाइयों का संवाद है। इनमें से पूर्वजन्म का सम्भूत एवं वर्तमान में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती प्रेयमार्ग का प्रतीक है और पर्वजन्म का चित्र और वर्तमान में गणसार मनि श्रेयमार्ग का प्रतीक है। प्रेयमार्ग के अनुगामी ब्रह्मदत्त चक्री ने पूर्वजन्म में आचरित सनिदान तपसंयम के फलस्वरूप विपुल भोगसामग्री प्राप्त की है, उसी पर उसे गर्व है, उसी में वह निमग्न रहता है। उसी भोगवादी प्रेयमार्ग की ओर मुनि को खींचने के लिए प्रयत्न करता है, समस्त भोग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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